तालिबान देश का इतिहास क्या है? आपको क्या पता है? जिस प्रकार आज अफगानिस्तान की हालात है पहले भी अफगानिस्तान के हालात कुछ ठीक नहीं थी। अफगानिस्तान के हालात तो पहले और भी ख़राब थी, शुरू से ही अफगानिस्तान के हालात कुछ ठीक नहीं हैं, अफगानिस्तान का इतिहास क्या है? अफगानिस्तान के लोग हमेशा से किसी ने किसी से परेशान ही रहा है, खासकर तालिबान संगठन से आखिर अफगानिस्तान में तालिबान का जन्म कैसे हुआ किस हालात में हुआ किस कारण हुआ इसके पीछे एक लम्बा चौड़ा इतिहास है। इसके पीछे कहीं न कहीं अमेरिका का ही हाथ है, अमेरिका ने अफगानिस्तान के सैनिको पर न जाने कितने ही लाख करोड़ रूपये ट्रेनिंग पर खर्च किया था।
कम्युनिष्ट – जो धर्म को नहीं मानता है
मुजाहिदीन/जिहाद – जो धर्म के लिए लड़े
अफगानिस्तान में तालिबान का खौफ – तालिबान देश का इतिहास
अचानक से कैसे शांत बैठा तालिबान कुछ ही दिनों में अफगानिस्तान (Afghanistan) के एक तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लेता है, और कुछ समय बाद काबुल तक पहुँच गए और उसके खौफ से अफगानिस्तान (Afghanistan) के राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़ के भाग गए। कहीं न कहीं अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी को भी जान का खतरा था जिस वजह से अफगानिस्तान (Afghanistan) के लोगो को उसके हालात पर छोड़ कर भागने को मजबूर हो गए।
कोई देश में ऐसा पहली बार हुआ जब अफगानिस्तान (Afghanistan) के लोग तालिबान के खौफ से उससे बचने के लिए देश छोड़ के भाग रहे थे। आपने लोगों को ट्रेन बस में लटक कर जाते हुए देखा सुना होगा। लेकिन तालिबान के कहर से अफगानिस्तान के लोग जहाँ भी जगह मिली जान बचाने के लिए हवाई जहाज में लटक गए और हवाई जहाज के ऊपर जाने के बाद एक एक करके लोग गिरते चले गए। जिससे कई लोगों की जाने चली गई, काबुल एयरपोर्ट का ये नजारा जहाँ हजारो लोग हवाई जहाज के साथ साथ दौड़ रहे थे ये दृश्य किसी को भी विचलित कर सकती है।
पुरे अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान का इतना खौफ बना हुआ है कि आज तालिबान के हुकूमत से अफगानिस्तान के लोग बचना चाहते है और कुछ लोग तो देश छोड़ने के लिए तैयार है, बहुत ने तो देश छोड़ भी दिया। बहुत से लोग तालिबान और उसके नीति के खिलाफ है चूँकि अब अफगानिस्तान में तालिबान का कब्ज़ा है और सब को पता है कि गर तालिबान का ही कब्ज़ा रहा तो उसकी हुकूमत से हर किसी का जीना हराम हो जायेगा। तालिबान लोगो के साथ इतनी क्रूरता अपनाता है जिससे लोगो में खौफ पैदा हो गया है उसकी निति से हर अफगानिस्तानी परेशान रहता है।
23 साल पहले जब अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान की हुकूमत थी उस दौर में जो कुछ भी अफगानिस्तान के लोगों ने देखा और उनके साथ जो हुआ वो कहीं दोबारा न हो इस बात की चिंता हर किसी को है। जिससे लोगो में बेहद ही खौफ पैदा हो गया है और फिर जब अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान की हुकूमत होगी तो लोगो से कैसे बदला लेगी जिसके बारे में अफगानिस्तानियों को अच्छा से पता है। शरिया कानून और इस्लामिक कानून के नाम पर तालिबान वहां के लोगो पर जो जुल्म करता है उससे हर कोई वहां परेशान है।
छोटी छोटी सी गलतियों पर बीच चौराहे पर तालिबान संगठन लोगों का सर धर से अलग कर देता है, फांसी दे दी जाती है ये आपने कई बार देखा ही होगा कई सारे तालिबान की क्रूरता की विडियो आज भी मौजूद है। 23 साल बाद आज फिर से वही तालिबान की हुकूमत लौट आई है
अमेरिका अफगानिस्तान (Afghanistan) के हाल पर छोड़ के क्यों लौट गया? 20 साल तक अमेरिका अफगानिस्तान में रहा 2001 में पहली बार तालिबान की सत्ता को खत्म करने के लिए अफगानिस्तान (Afghanistan) में अपना बेस बनाया था और कुछ समय बाद अफगानिस्तान से तालिबान की हुकूमत भी खत्म कर दिया। उसके बाद वहां नई नई सरकार बनी, अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान (Afghanistan) में रही उस दरमियाँन अमेरिका के कई सैनिक भी मारे गए और अफगानिस्तान के भी करीब 70 हजार सैनिक मारे गए।
न जाने कितने लाख करोड़ रुपये अमेरिका अफगानिस्तान में खर्चा किया वहां के सैनिको को ट्रेनिंग देने के लिए अपना base और Air Base बनाने के लिए। लेकिन अब इसके बाद अमेरिका अपने सैनिको के साथ निकल चुका है, उसके अपने हाल पर छोड़कर, जोई बाईडन ने कुछ समय पहले ही एक बयान दिया और कहा था ऐसा भी नहीं है की अफगानिस्तान पर तालिबान इतना जल्दी कब्ज़ा कर लेगा अफगानिस्तान के फ़ौज बहुत ही अच्छे से trained है। के बावजूद मुश्किल से 10 दिन लगे होंगे कि तालिबान अफगानिस्तान के एक तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया और बहुत ही कम समय में अफगानिस्तान के राजधानी काबुल पर कब्ज़ा कर लिया।
तालिबान देश का इतिहास
साल 1998 के मुकाबले इस बार ज्यादा खून खराबा नहीं हुआ इस बार अफगानिस्तान (Afghanistan) के राष्ट्रपति जो थे अशरफ गनी अफगानिस्तान के लोगो को उसके हाल पर चुपचाप तरीके से अफगानिस्तान देश छोड़ के भाग गया। क्योंकि उनके जान का खतरा था अब लघभग पूरा अफगानिस्तान तालिबान के कब्जे में है अब जो होगा अफगानिस्तान में तालिबान के इशारे पर होगा जो लोग वहां बचे है वो तालिबान के नए कानून नीति के फरमान के इन्तेजार में है चूँकि तालिबान के पहले से ही कुछ कानून की नीतियाँ बनी हुई है जो शुरू से चली आ रही है।
अफगानिस्तान (Afghanistan) में 1998 से लेकर 2001 तक तालिबान ने जो कुछ भी किया ठीक वैसा ही दोहराया न जाये तालिबान का जो महिलाओ और औरतो को लेकर जो शरिया कानून है जिसमे छटी क्लास के बाद लड़कियां स्कूल नहीं जाएगी। पुरुष डॉक्टरो से महिलाएं इलाज नहीं करवाएंगी जो शरिया कानून को नहीं मानेगा उसे सजा दी जाएगी उसका सर काट दिया जायेगा यही सब चीजो को लेकर अफगानिस्तान के लोगो में डर बना हुआ है, कहीं वैसा दोबारा न दोहराया जाये।
आपको अफगानिस्तान (Afghanistan) के इतिहास के बारे में जानना बेहद ही जरुरी है, आखिर अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान का जन्म कैसे किस हालात में हुआ इसका जिम्मेवार कौन हैं? इसके इतिहास के बारे में हर किसी को जानना चाहिए। तालिबान का मतलब क्या है तालिबान आज के वक्त में इतना बड़ा खौफ कैसे बना? 23 साल बाद शांत पड़ा तालिबान जिन्दा कैसे हो गया? फिर से इनका दबदबा कैसा हो गया इतने साल तक तालिबान कहाँ था?
तालिब से तालिबान कैसा बना? इसमें अमेरिका का क्या रोल है? अफगानिस्तान ऐसा कैसा हो गया? तालिबान का जन्म कैसे हुआ क्या तालिबान को अमेरिका ने जन्म दिया। अमेरिका ने अफगानिस्तान में interfere क्यों किया अमेरिका अफगानिस्तान के सैनिको पर कई लाख करोड़ रुपये क्यों खर्च किये? इसके पीछे क्या वजह थी तालिबान का मतलब क्या होता है तालिब का क्या मतलब होता है? तालिब से तालिबान बनने की कहानी जानने के लिए अफगानिस्तान का इतिहास में जाना होगा उसके लिए आज से करीब 102 साल पहले जाना होगा उस दौर में अफगानिस्तान में क्या हुआ था आखिर वो कौन सी वजह रही की अफगानिस्तान में तालिबान का जन्म हुआ और पूरी दुनिया में इसका खौफ बन गया।
तालिबान देश का इतिहास कहाँ से शुरू हुई?
तालिबान की जन्म की शुरुआत साल 1919 से शुरू हो जाती है जिसके पीछे एक बड़ा इतिहास है, 19 अगस्त 1919 में अफगानिस्तान (Afghanistan) को अंग्रेजों से आजाद देश की मान्यता मिलती है। साल 1919 में अंग्रेज अफगानिस्तान को आजाद कर देता है क्योंकि अंग्रजो को अफगानिस्तान से कुछ खास फायदा नजर नहीं आ रहा था। पूरा अफगानिस्तान करीब करीब पथरीला और पहाड़ी इलाको से घिरा हुआ है, अफगानिस्तान में बहुत से अलग अलग कबीले के लोग है कुछ बड़े कबीले जो अपना दबदबा बनाना चाहता था लड़ाई में माहिर है खास करके गोर्रिला वार में तो अंग्रेज अफगानिस्तान के लोगो को उसके हाल में छोड़ कर में चले जाते हैं।
अफगानिस्तान (Afghanistan) में राज शाही परिवार की शासन की शुरुआत
अफगानिस्तान (Afghanistan) से अंग्रेज के चले जाने के बाद अफगानिस्तान में राज शाही परिवार की शुरुआत होती है और शाह परिवार अफगानिस्तान में अपनी हुकूमत शुरू करती है और अपना राज शासन चलाता है। अफगानिस्तान में राज शाही परिवार करीब 54 साल तक राज करते है, 1919 से लेकर 1973 तक ये शासन करता है। आखिरी राजा शाह परिवार के ही थे जो अफगानिस्तान (Afghanistan) के राजशाही मोहम्मद जहीर शाह थे, मोहम्मद जहीर शाह इस वंशज के आखिरी राजा थे जिसकी गद्दी 1919 में शुरू हुई थी।
अफगानिस्तान में दाउद खान मोहम्मद जहीर शाह के खिलाफ तख्ता पलट
बात सन् 1973 की है जब मोहम्मद जहीर शाह बीमार पड़ गए तबियत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई थी। अफगानिस्तान (Afghanistan) में मोहम्मद जहीर शाह का इलाज संभव नहीं था, कुछ लोगो ने सुझाव दिया की इटली में एक अच्छा डॉक्टर है वो वहां से इलाज करवाए। तो मोहम्मद जहीर शाह इलाज के लिए इटली चले जाते हैं और उस वक्त मोहम्मद जहीर शाह के सेनापति दाउद खान थे। जब मोहम्मद जहीर शाह इटली इलाज के लिए गए हुए थे तब दाउद खान के मन में सत्ता को लेकर लालच आ जाता है। उसको लगता है राजा है नहीं मौका अच्छा है तो मोहम्मद जहीर शाह के सेनापति दाउद खान तख्ता पलट कर देता है।
दाउद खान का अफगानिस्तान का पहला Prime Minister बनना
73 साल तक मोहम्मद जहीर शाह के वंशज ने अफगानिस्तान (Afghanistan) में राज किया जो कि एक बहुत लंबा वक्त होता है लोगो में डेमोक्रेसी को लेकर बदलाव भी आ रहा था। क्योकि लोग बाकि दुनिया से वाकिफ थे वो भी हर तरह की आजदी चाहते थे बदलाव चाहते थे लोग जागरूक हो रहे थे। उन्हें भी आजदी चाहिए थी बोलने की कहने की अपने तरीके से जीने की तो ये सब चीजो का फायदा मोहम्मद जहीर शाह के सेनापति दाउद खान ने उठाया। जब मोहम्मद जहीर शाह इलाज के लिए इटली गए तब सेनापति दाउद खान ने अफगानिस्तान (Afghanistan) का तख्ता पलट कर अपने आप को वहां के Prime Minister घोषित दिया।
और उसके बाद लोगो से वायदा किया की बहुत हुआ राज शाही परिवार का शासन अब अफगानिस्तान (Afghanistan) में नया सविंधान आएगा। जिसमे लोगो को पूरी आजादी होगी अपनी बात रखने की कहने की अपने तरीके से जीने की अपने मुताबिक कपड़े पहनने की लोगो को भी अच्छा लगने लगा था। लोगों को उसकी बातो का यकीन भी होने लगा था लोगो को भी लगा चलो ठीक है राज शाही से अब निजात तो मिला। अब देश में डेमोक्रेसी आएगी और अफगानिस्तान (Afghanistan) में पहला Prime Minister आने वाला था और दाउद खान अफगानिस्तान के Prime Minister बन गए।
दाउद खान के खिलाफ धरना प्रदर्शन क्यों किया गया?
दाउद खान Prime Minister बनने के दौरान कहा था कि मैं नया सविंधान लाऊंगा 1973 से 1977 हो चुका था। 4 साल तक Prime Minister बने रहे लेकिन दाउद खान ने अफगानिस्तान (Afghanistan) में कुछ भी नहीं किया। सन् 1977 में जब लोगो को समझ में आने लगा कि दाउद खान अपने वायदे के मुताबिक कुछ भी नहीं किया तो लोगो का गुस्सा फूटने लगा लोग दाउद खान का विरोध करने लगा।
उसके बाद नया Constitution लाया लेकिन उसके नाम पर अफगानिस्तान (Afghanistan) के लोगो को बेवकूफ बनाया Constitution ऐसा था कि अफगानिस्तान में सिंगल पार्टी फार्मूला थी। यानि की अफगानिस्तान में एक ही पार्टी रहेगी वही चुनाव लड़ेगी वही सत्ता में रहेगी और उस पार्टी के मुखिया भी खुद दाउद खान रहेंगे। ताकि जब तक वो जिन्दा रहे Prime Minister बने रहे और अफगानिस्तान (Afghanistan) में हुकूमत करता रहा।
जब इन्होंने ये Constitution लाया और Constitution के नाम पर अफगानिस्तान के लोगो से धोखा किया तो लोग गुस्सा हो गए जो स्वाभाविक था। और उन्होंने कहा ये हम लोगो को बेवकूफ बना रहा है, कहा ये राज शाही से छुटकारा दिलाया लेकिन ये खुद लोगो के साथ शख्ती बरत रहे एक जासूस का काम करे है। बाकि अन्य किसी पार्टी को चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं दिया गया, जब 1977 में ये Constitution आया 1978 में अफगानिस्तान के लोगो ने जगह जगह धरना प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। और अफगानिस्तान में एक तरह की क्रांति (revolution) आ गई, जिसका नाम अफगानिस्तान के लोगो ने शोरक्रांति दिया।
जो इस क्रांति को लीड कर रहे थे जो लीडर थे उसका नाम था नूर मोहम्मद तारीकी जो एक यंग लीडर थे। वो भी डेमोक्रेसी चाहते थे धीरे धीरे पुरे अफगानिस्तान (Afghanistan) में दाउद खान के खिलाफ क्रांति फ़ैल गई, और आखिरकार दाउद खान को लगा की अब हुकूमत कर पाना संभव नहीं तो उसने Prime Minister के पद से इस्तीफा दे दिया। उसके बाद लोगों ने जिस क्रांति के उनके जो हीरो थे जो मुखिया थे नूर मोहम्मद तारीकी जिसको लोगों ने अपना नेता माना था उसको अफगानिस्तान (Afghanistan) के प्रेसिडेंट का दावेदार बना दिया।
नूर मोहम्मद तारीकी का अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनना
दाउद खान अफगानिस्तान के पहले Prime Minister बने थे उसके बाद सन् 1978 में नूर मोहम्मद तारीकी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति बनते हैं। जब नूर मोहम्मद तारीकी राष्ट्रपति बने तब नूर मोहम्मद तारीकी की सोवियत संघ से पुरानी गहरी दोस्ती थी। सोवियत संघ एक कम्युनिष्ट देश यानि जो धर्म को नहीं मानता है, जब नूर मोहम्मद तारीकी राष्ट्रपति बना तो सोवियत संघ के साथ नजदीकियां ज्यादा बढ़ गई। चूँकि सोवियत संघ की सीमा अफगानिस्तान की सीमा से लगती है तो सोवियत संघ ने भी सोचा क्यों न अब अफगानिस्तान में घुसपैठ करे जिससे हमारी ताकत बढ़ जाएगी वैसे भी सभी देश अपनी अपनी शक्ति बढ़ाने में लगी हुई।
अफगानिस्तान में एक ऐसा राष्ट्रपति बना था जो सोवियत संघ का अच्छा दोस्त था तो सोवियत संघ भी इसका फायदा उठाने की सोची तो सोवियत संघ ने नूर मोहम्मद तारीकी से कहा कि आप अफगानिस्तान में आप थोड़ा आधुनिकीकरण लाइए। स्कूल, कॉलेज, कारखाने आदि खोलिए और खासकर लड़कियों के शिक्षा पर जोर दीजिये सोवियत संघ की बातो को नूर मोहम्मद तारीकी ने माना, धीरे धीरे अफगानिस्तान में आधुनिकीकरण आया और खासकर के महिलाओ के वेशभूषा के पहनावे में बदलाव आया। महिलाये ज्यादा घुमने फिरने लगी महिलाये स्कूल collage जाने लगी सब कुछ वेस्टर्न कल्चर में धीरे धीरे तब्दील हो रहा था।
शुरुआत में Afghanistan के कुछ कट्टर लोगो को महिलाओ के पहनावे को लेकर अजीब लगा क्योंकि अफगानिस्तान एक बड़ा रुढ़िवादी देश है जहाँ पर बहुत से अलग अलग कबीले है जो धर्म और मजहब के बहुत करीब है। तो ये सब सारी चीजे देखने के बाद अफगानिस्तान के कुछ कट्टर लोगो को ऐसा लगा की नूर मोहम्मद तारीकी अफगानिस्तान (Afghanistan) को वेस्टर्न कंट्री बना रहा है। तो थोड़ी दबी आवाज में नूर मोहम्मद तारीकी के खिलाफ धीरे धीरे आवाज उठने लगी थी
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति नूर मोहम्मद तारीकी के खिलाफ क्रांति
लेकिन पहली बार नूर मोहम्मद तारीकी के खिलाफ सार्जनिक तरीके से आवाज तब उठनी शुरू हुई जब सोवियत संघ के कहने पर एक सामाजिक सुधार के तहत अफगानिस्तान में गरीबी दूर करने के लिए ऐसे लोग जिनके पास जमीन ज्यादा थी उनसे कहा कि आप अपनी जमीन उन लोगों को दे जिनके पास जमीन कम है। तो बहुत से लोग नूर मोहम्मद तारीकी की सरकार और उसके निति के खिलाफ हो गए उन्हें लगा कि Western Country सोवियत संघ के इशारे और मिली भगत से हमारे देश के कल्चर और अन्य चीजों को खत्म करने की साजिश चक रही है। तो यहीं से नूर मोहम्मद तारीकी के खिलाफ आवाज उठानी शुरू हो गई थी।
जब Afghanistan में आधुनिककरण हो रहा था तब ईरान में भी आधुनिकीकरण की मुहिम चल रही थी और वहाँ पर अमेरीका ये सब करवा रहा था। और वहाँ पर भी कट्टर इस्लामिक लोग क्रांति कर रहे थे, अफगानिस्तान में (Afghanistan) सोवियत संघ का दबदबा देखकर अमेरीका भी अफगानिस्तान में घुसपैठ करने का फैसला लेता है। पर कैसे करे? उसने पता किया कि Afghanistan में कुछ कट्टर लोग है जो खुली सभ्यता और खुली सोच के खिलाफ थे। रूढ़िवादी है और इस्लाम के नाम पर इन चीजों को वो बर्दाश्त नहीं करता है अमेरीका को यहीं मौका मिल गया।
अमेरिका का अफगानिस्तान के मामले में दखल देना और उसके आदमी को मिला लेना
अमेरिका ने क्या किया कि नूर मोहम्मद तारीकी के मंत्रिमंडल में एक Foreign Minister थे Haffizuddin Ameen, अमेरिका के CIA ने Haffizuddin Ameen को घेरना शुरू कर दिया। और कहा आप ताकतवर है आपकी बाते लोगों तक पहुंचती है, आपके यहां के लोग जो सोवियत संघ को लेकर गुस्सा हैं। इस बदलाव की निति को लेकर आप इसको लीड कीजिए अमेरीका आपकी मदद करेगा, विदेश मंत्री Haffizuddin Ameen ने कहा मैं कैसे lead कर सकता हूँ? तो अमेरीका ने कहा कि आप कबीलाई लोग और students wing के लोगों को भड़काईए की ये तो इस्लाम के खिलाफ है।
आप उनको जिहाद करने पर मजबूर कीजिए और मुजाहिदीन बनाइये (मतलब जो धर्म के लिए लड़ते हैं)। अमेरीका के CIA ने उस वक़्त के अफगानिस्तान (Afghanistan) के Foreign Minister Haffizuddin Ameen को अपनी तरफ मिला लिया था। Haffizuddin Ameen ने भी कहा ठीक है
अफगानिस्तान के विदेश मंत्री का अपने ही देश के लोगो को भड़काना
उसके बाद जितने भी अफगानिस्तान (Afghanistan) के कट्टर काबिलाई लोग थे उनको Haffizuddin Ameen भड़काना शुरू कर देते हैं। Haffizuddin Ameen ने कहा कि ये जो अपना President है नूर मोहम्मद तारीकी ये सोवियत संघ से मिल के अपने देश को western Country बना रहा है। औरतों को लेकर जो हमारे देश में पर्दा है पहनावा है एक कानून है उसे खत्म करना चाहता है। जो इस्लाम और शरिया कानून के खिलाफ है, लोग वैसे भी पहले से गुस्से में थे भड़के हुए थे ऊपर से इसने भी जले हुए मे घी डाल दिया लोग और गुस्सा हो गए भड़क गए।
अमेरीका ने देखा कि ये मौका अच्छा है तो अमेरीका ने पाकिस्तान को भी अपनी तरफ मिला लिया। और पाकिस्तानियों को कहा कि आप इन मुजाहिदीन को ट्रेनिंग दो, पैसा और हथियार मैं दूँगा। अफगानिस्तान (Afghanistan) के जितने भी अलग अलग इलाके के कबीले और मुजाहिदीन थे सबको पाकिस्तान बुलाया गया और उसे अमेरिका की मदद से ट्रेनिंग दिया जाने लगा। वो ट्रेनिंग लेते फिर वापस अफगानिस्तान आकर क्रांति में शामिल हो जाते और सोवियत संघ के जो रूसी सैनिक थे उसके खिलाफ आवाज उठाते और लड़ाई शुरू हो जाती थी।
लेकिन फ़िलहाल अफगानिस्तान (Afghanistan) की स्थिति ठीक ठाक चल रही थी लेकिन जैसे जैसे ट्रेनिंग ले के कबीले के लोग और मुजाहिदीन अफगानिस्तान के क्रांति में शामिल हो रहे थे, वैसे वैसे मामला धीरे धीरे गड़बड़ा रहा था।
अमेरिका ने अफगानिस्तान की लड़ाई में कई देशो को कूदा दिया
अब नूर मोहम्मद तारीकी को अपनी सरकार बचाना मुश्किल हो रहा था, ऐसी स्थिति में उन्होंने सोवियत संघ जाने का फैसला किया। इस दौरान मुजाहिदीनो की आवाज भी उठा रही थी कि इस्लाम को बचाना है, अफ़गानिस्तान (Afghanistan) को पश्चिमी सभ्यता से बचाना है। पाकिस्तान और मुजाहिदीन इस क्रांति में मदद कर तो रहे थे साथ में कुछ इस्लामिक देश भी शामिल हो गए। जिसमें एक था सऊदी अरब अमेरीका ने सऊदी अरब से कहा देखो अफगानिस्तान में बेवजह सोवियत संघ इस्लाम के खिलाफ अपनी दखल दे रहा है। अफगानिस्तान के पारंपरिक धर्म रिवाजों को बर्बाद करने की कोशिश कर रहा है।
इस्लामिक कल्चर को खत्म करके Western Country बनाना चाहता है, तो आप हमारी मदद करो तो सऊदी अरब ने कुछ आदमी अफगानिस्तान भेज दिया और कहा सोवियत संघ की ताकत को कम करो। और एक ऐसे आदमी को सऊदी अरब ने भेजा जो आगे चलकर उसकी दहशत कई देशो में फैला खासकर अमेरिका के ही खिलाफ जिसको बाद में अमेरीका ने ही मारा। तो सऊदी अरब ने अमेरीका से ही बात करके दोनों के मर्जी से अफगानिस्तान (Afghanistan) में ओसामा बिन लादेन को भेजा गया था जो बाद में चलकर अमेरीका के लिए ही आफत बन गई थी।
अफगानिस्तान में अमेरिका की मदद से तालिबान की जन्म की शुरुआत
और इस दरमियान सब मुजाहिदीन एकजुट हो रहे थे अलग अलग कबीले के रूप में लड़ रहे थे, सोवियत संघ और नूर मोहम्मद तारीकी के सरकार के नीति के खिलाफ। तो इस क्रांति से student को भी जोड़ने का फैसला लिया गया क्योंकि स्टूडेंट सबसे ज्यादा मजबूत होते थे। तो student को ज्यादा से ज्यादा भड़काओ तो बहुत सारे students wing (छात्र यूनियन) आए उसमे से एक student का नेता था। जो सोवियत संघ और नूर मोहम्मद तारीकी के सरकार के खिलाफ सबसे आगे था और उनसे कहा गया कि तुम इस अभियान में ज्यादा से ज्यादा छात्रों (Students ) को जोड़ों।
छात्र ( Student ) को अरबी/उर्दू में तालिब कहते है ( यानि तालिब का मतलब छात्र (student) ही होता है)
उर्दू या अरबी में छात्र को तालिब (Talib) कहते हैं, तो अमेरिका ने कहा सब तालिबों को इस क्रांति से जोड़ों। उनमें से एक तालिब था उमर वो भी इस क्रांति से जुड़ हुआ था नूर मोहम्मद तारीकी और सोवियत संघ के खिलाफ। लड़ाई होती रही और इस दौरान धीरे धीरे अफगानिस्तान का हालात बिगड़ती रही, और आखिरकार नूर मोहम्मद तारीकी को अपनी सरकार बचाने के लिए सोवियत संघ जानी पड़ी। और वहां के नेताओ से जाकर मिला तो सोवियत संघ को भी पता था कि अफगानिस्तान (Afghanistan) के अभी के हालात ठीक नहीं है और इसमे अमेरीका भी घुस चुका है।
तो सोवियत संघ ने नूर मोहम्मद तारीकी से कहा कि जो ये आधुनिकीकरण कि नीति है उसे फ़िलहाल रोक दो, जैसे पहले की तरह था जितने भी महिलाओ को लेकर आजादी वाली निति है उसे भूल जाओ। साथ में सोवियत संघ ने एक और बात कही और कहा कि जो आपके अफगानिस्तान के मंत्रिमंडल में Foreign Minister (विदेश मंत्री) है। Haffizuddin Ameen उसे अपने मंत्रिमंडल से हटा दो तो नूर मोहम्मद तारीकी ने पूछा क्यों तो सोवियत संघ ने कहा कि जो आपके देश में अमेरीका का घुसपैठ हो रहा है उसमे आपके Foreign Minister Haffizuddin Ameen का ही हाथ है।
क्योंकि वो अमेरीका के CIA के लिए काम करता है, और जब नूर मोहम्मद तारीकी को पता चला तो उसने कहा कि जब मैं अफगानिस्तान (Afghanistan) लौटूंगा तो उसे हटा दूँगा। इत्तेफ़ाक से अमेरीका के CIA को ये बात पता चल गई और उसने अफगानिस्तान के Foreign Minister Haffizuddin Ameen को ये बात पहले ही बता दी। अब Haffizuddin Ameen को पता चल गई कि President नूर मोहम्मद तारीकी के लौटते ही उसको हटा देंगे।
अफगानिस्तान के प्रेसिडेंट नूर मोहम्मद तारीकी की हत्या
नूर मोहम्मद तारीकी मास्को से काबुल लौटते हैं। जैसे ही नूर मोहम्मद तारीकी काबुल Airport उतरते है तो पहले से Haffizuddin Ameen अपने लोगों के साथ Airport पहुंच जाते हैं।
और नूर मोहम्मद तारीकी और उसके पूरे परिवार को Haffizuddin Ameen कब्जे में लेकर उसको मार देता है। तो नूर मोहम्मद तारीकी और उसके परिवार को उसके ही Foreign Minister Haffizuddin Ameen ने कत्ल कर दिया। कत्ल करने के बाद अब अफगानिस्तान (Afghanistan) का नया शासक और रूलर अफगानिस्तान के Foreign Minister Haffizuddin Ameen बन चुका था। Haffizuddin Ameen अब अपनी सरकार बना ली थी, जब Haffizuddin Ameen ने नूर मोहम्मद तारीकी और उसके परिवार को मारा तो ये सीधे सीधे तौर पर सोवियत संघ के लिए एक चुनौती थी। क्योंकि नूर मोहम्मद तारीकी सोवियत संघ से ही लौटे थे।
सोवियत संघ की सेना 1979 में अफगानिस्तान पर क्यों हमला किया?
और सबको पता था कि नूर मोहम्मद तारीकी के पीछे सोवियत संघ का हाथ है, यहां पर सोवियत संघ भड़क गया,और नूर मोहम्मद तारीकी के कत्ल के कुछ दिन बाद ही सोवियत संघ ने 25 December 1979 को अफगानिस्तान पर पहली बार अपनी फौज की मदद से हमला कर दिया। उसके बाद सोवियत संघ की सेना काबुल पहुंचती है, और Haffizuddin Ameen को सोवियत संघ की सेना मार देता है। मारने के बाद उसकी सरकार गिर गई, 1979 में अब अफगानिस्तान में सोवियत संघ की कठपुतली सरकार चल रही थी। अब उसका राज हो गया था अफगानिस्तान में, सोवियत संघ के हमला करने के बाद अमेरीका को भी मौका मिल गया।
अमेरीका ने इस्लामिक देशों पाकिस्तान आदि को अपने में मिलाया और कहा कि ये सीधे सीधे तौर पर हमला है इस्लाम और इस्लामिक धर्म के खिलाफ।क्योंकि सोवियत संघ अफगानिस्तान को पश्चिमी सभ्यता में तब्दील करना चाहता है, अमेरीका पहले से ही मुजाहिदीन पर खर्चा कर रहा था और हथियार दे रहा था। अब मुजाहिदीन को अमेरीका मिसाइल और Anti Missile craft भी दे रहा था, और कहा कि अब लड़ो अमेरीका पहले से मुजाहिदीन को पाकिस्तान में ट्रेनिंग दिला चुका था तैयारी करवा चुकी थी। पाकिस्तान, सऊदी अरब को साथ मिलाया ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकी को पहले ही सोवियत संघ के सेना से लड़ने के लिए अफगानिस्तान भेज चुके थे, अब ये सारे मिलकर लड़ रहे हैं।
सोवियत संघ ने तो अफगानिस्तान मे अपनी सेना भेज दिया था लेकिन सोवियत संघ की सेना को मुश्किल ये हो रही थी कि अफगानिस्तान का जो भौगोलिक परिस्थितियां थी वो सोवियत संघ के सेना के मुताबिक यानी उसके लिए comfortable नहीं थी। पहाड़ी पथरीली इलाक़ा जगह जगह पहाड़ जिसमें मुजाहिदीन और अफगानिस्तान ही comfortable थी। लड़ने मे तेज थी खासकर के gorilla War मे एक्सपर्ट तो उसके फौज के लिए वहां लड़ाई करना बहुत मुश्किल हो रही थी, उसे लग रहा था कि वो यहां ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकते हैं Air Force भी कुछ खास मदद नहीं कर पाई क्योंकि अफगानिस्तान में इतना पहाड़ी इलाक़ा है कि कहीं aircraft land करा ही नहीं सकते थे।
सोवियत संघ की सेना अफगानिस्तान से क्यों भाग गई? तालिबान देश का इतिहास
मुजाहिदीन को पहले से ही अमेरीका ने Anti Missile craft दे चुके थे, जिसने सोवियत संघ के कई craft को मार गिराया था। तो सोवियत संघ को भारी नुकसान हो रहा था और ऐसे ही छोटे मोटे लड़ाई करीब 10 साल तक चलती रही। और 10 साल बाद 15 फरवरी 1989 को सोवियत संघ ने फैसला किया और कहा कि अफगानिस्तानियों को उसके हाल पर छोड़ दो। वहां से निकल लो अब ज्यादा उलझने से कोई फायदा नहीं है और 15 फरवरी 1989 को सोवियत संघ की सेना अफगानिस्तान को छोड़ कर वापस सोवियत संघ लौट जाते हैं। ये अमेरीका पाकिस्तान सऊदी अरब, मुजाहिदिनों, ओसामा बिन लादेन के लिए एक बड़ी जीत थी।
अब यहीं से परिस्थितियां पलट जाती है जो दुश्मन था वो अफगानिस्ता (Afghanistan) से भाग चुकी थी, अफगानिस्तान में अब कोई दुश्मन नहीं बचा था। अफगानिस्तान में अब मुजाहिदीन, पाकिस्तान, और अमेरीका की कठपुतली सरकार चल रही थी, लेकिन अफगानिस्तान में हुआ अब ये कि Afghanistan में कबीले के लोग और मुजाहिदीन आपस में लड़ रहे थे, अफगानिस्तान में सब की अपनी अलग अलग कबीले सब कबीले के अलग अलग नियम और कानून थी उसकी एक अलग पहचान थी। तो बहुत सारे कबीले अब अफगानिस्तान पर शासन करने के लिए आगे आ रहे थे और एक होड़ सी मच गई थी।
अफगानिस्तान में गृहयुद्ध क्यों छिड़ा था? तालिबान देश का इतिहास
तो सब कबीले आपस में लड़ बैठे की कौन अफगानिस्तान (Afghanistan) पर शासन करेगा कौन अधिक शक्तिशाली है, धीरे धीरे ये कबीले वाले आपस में लड़ने लगे, और यहां पहली बार अमेरीका को मुश्किल हो रही थी। क्योंकि अमेरिका ही उनको हथियार और पैसे दे रहे थे और उसी हथियार से वो लोग आपस में लड़ रहे थे। पर ये लड़ाई चलती रही और करीब 9 साल तक अफगानिस्तान के कबीले के लोग आपस में लड़ते रहे अफगानिस्तान में कठपुतली की सरकार चलती रही। कबीले की लड़ाई धीरे धीरे अफगानिस्तान में एक तरह से गृहयुद्ध में तब्दील हो गई जिससे आम लोगों को बहुत परेशानी होने लगी थी।
कब किसकी कहाँ जान चली जाए कहाँ से किसको गोली लग जाये किसी को पता नहीं था। धीरे धीरे इस गृहयुद्ध की लड़ाई में जितने भी अलग अलग कबीले के लोग और मुजाहिदीन थे, उसमे से जो सबसे ताकतवर बनके उभरा वो student wing (छात्र यूनियन) था। student wing जिसको सोवियत संघ से लड़ने के लिए अमेरिका ने ही तैयार किया गया था।तो धीरे धीरे कबीलाई लोग हार रहे थे और धीरे धीरे तालिब यानी छात्रों का यूनियन शक्तिशाली बनके उभर रहा था और सबसे आगे चल रहे थे। और इस Students wing मे भी एक तालिब (Student – छात्र ) का नाम बहुत तेजी से उभरा, जिसने सोवियत संघ के कई सेना को मार गिराया और भगाया।
उसका नाम था उमर वो उस समय से अफगानिस्तान के नूर मोहम्मद तारीकी सरकार और सोवियत संघ के सेना के विरुद्ध क्रांति कर रहे थे और लड़ रहे थे। एक लड़ाई के दौरान हुए बम विस्फोट में student wing के मुखिया उमर का दाहिना आंख खराब हो जाती है। चूंकि सोवियत संघ की सेना अफगानिस्तान छोड़ के जा चुकी थी तो student wing के लीडर उमर भी अपने आप को धीरे धीरे लड़ाई से अलग थलग कर लेता है। और धार्मिक कामों में लग जाता है और मस्जिदों में नमाज पढ़ाने लगता है। जो नमाज पढ़ाता है उसे इमाम, मौलाना और मुल्ला कहते है तो धीरे धीरे एक वक़्त ऐसा भी आया जब उमर मुल्ला/मौलाना/इमाम हो जाता है।
मुल्ला उमर अफगानिस्तान में तालिबान का पहला शासक बनता है
बाद में आगे चलकर उमर को लोग मुल्ला उमर के नाम से जानते हैं, उसके बाद 9/11 हमला होता है, जिसके पीछे ओसमा बिन लादेन की साजिश निकली जिसके बाद ओसामा बिन लादेन पूरी दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है। तब student wing के लीडर मुल्ला उमर ने अफगानिस्तान (Afghanistan) में ओसामा बिन लादेन को पनाह दिया दी थी अमेरिकी फौजियों से, और 1998 में सब कबीले के लोग हार चुके थे सब पीछ हट चुके थे सिर्फ तालिब यानी student wing के यूनियन ही बचती है। जिसमें मुल्ला उमर तालिब के लीडर बनते है सबसे बड़ा नेता बनके उभरते हैं
और फिर जन्म होता है तालिबान का जो की तालिब यानी student और उसका नेता मुल्ला उमर तो इस प्रकार जन्म होता है तालिब से तालिबान का जिसका मुखिया बनता है मुल्ला उमर। उसके बाद 1998 में तालिब (छात्र) यूनियन यानि तालिबान काबुल में घुस जाता है और धीरे धीरे पूरे अफगानिस्तान (Afghanistan) को तालिबान अपने कब्जे में ले लेता है। और पहली बार 1998 में अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान अपनी सरकार बनाती है और हुकूमत चलाती है, और साथ में बहुत से फरमान भी जारी करती है।
जिसमे एक शरिया कानून लागू करता है जिसमे गर कोई इंसान उसके कानून को नहीं मानता है कोई उल्लंघन करता है तो उसका सर काट दिया जाता था। और बीच चौराहे पर गलती करने वालो को फांसी दी जाती थी और बाकायदा उस समय के वहां के President नजीबुल्लाह को बुरी तरह से पीटा उनके प्राइवेट गुप्तांगों को काट लिया गया और सिर में गोली मार कर पहले क्रेन पर लटकाया और फिर राजमहल के नज़दीक के लैंप पोस्ट से टांग दिया।
तो मुल्ला उमर तालिबान का पहला शासक पहला ruler पहला मुखिया बनता है 1998 से लेकर 2001 तक तालिबान ने अफगानिस्तान (Afghanistan) पर राज किया। 9/11 हमला होने के बाद पता चलता है कि इसके पीछे ओसामा बिन लादेन का हाथ है और ओसामा बिन लादेन अफगानिस्तान (Afghanistan) में ही तोरा बोरा के पहाडियों छिप कर बैठा है। ओसामा बिन लादेन को उसके किए कि सजा देने के लिए चूंकि तालिबान उसको सुरक्षा प्रदान कर रही थी, 2001 मे अमेरीका अपनी फौज को अफगानिस्तान (Afghanistan) भेजने का फैसला करती है।
अमेरिका 2001 में अपनी सेना अफगानिस्तान तालिबान के खिलाफ भेजती है
और 2001 मे अमेरीकी सैनिक अफगानिस्तान पहुंचती है तालिबान से सीधी लड़ाई होती है, तालिबान को जड़ से उखाड़ फेंकती है। काबुल से उनको भगा देते हैं उसके बाद करजई और बाकी कठपुतली सरकार थी जो पहले 1979 में सोवियत संघ की कठपुतली सरकार हुआ करती थी। अब 2001 के बाद अमेरीका की कठपुतली सरकार थी, और धीरे धीरे अमेरीका अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या लगातार बढ़ाती जा रही थी। और धीरे धीरे एक मुहीम चला रहा था ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए, लेकिन ओसामा बिन लादेन अफगानिस्तान में मिलता ही नहीं है वो मिलता है पाकिस्तान में और इसी बीच मुल्ला उमर भी गायब हो जाता है।
लेकिन बाद में मुल्ला उमर को गिरफ्तार कर लिया जाता है और मुल्ला उमर को पाकिस्तान के जेल में रखा जाता है। फिर 2013 मे मुल्ला उमर को रिहा कर दिया जाता है, क्योंकि बीच बीच में तालिबान सर उठा रहा था तब लगता था कि मुल्ला उमर की जरूरत पड़ेगी शांति समझौता के लिए। और बीच में मुल्ला उमर एक बयान भी देता है और कहता है कि अमेरीका से समझौते की बातचीत करनी चाहिए ये अफगानिस्तान (Afghanistan) के लिए बेहतर होगा।
लेकिन 2013 में मुल्ला उमर की मौत हो जाती है, एक समय अमेरिका मुल्ला उमर की गिरफ्तारी पर करीब 1 करोड़ Doller का इनाम की राशि भी रखी थी। चूँकि 2013 मे मुल्ला उमर की मौत हो चुकी थी लेकिन तालिबान ज़िन्दा रहता है लेकिन थोड़ा कमज़ोर पड़ गया था। अब अमेरीका का सैनिक अफगानिस्तान में ही तैनात थे लेकिन जिस तालिबान को अमेरीका ने सोवियत संघ के खिलाफ खड़ा किया था। अब वो तालिबान अमेरीका के ही खिलाफ खड़ा हो चुका था, जिस तालिबान को अमेरीका ने ट्रेनिंग के लिए पैसे दिए हथियार दिए अब उसी हथियार का इस्तेमाल अमेरिका के विरुद्ध कर रहा था। करीब 2000 से 3000 अमेरीकी सैनिक अफगानिस्तान में मारे गए।
अफगानिस्तान में फिर से 2021 में तालिबान की सरकार कैसे बनी?
ना जाने कितने ही लाख करोड़ डॉलर अमेरीका ने अफगानिस्तान में ख़र्चे किए थे ट्रेनिंग दी करीब 3 लाख के आसपास अफगानिस्तान फौज तैयार की Airforce तैयार करके दिया। चूँकि कुछ समय पश्चात् ओसमा बिन लादेन को मार दिया जाता है और अब अफगानिस्तान में अमेरिका की कोई जरुरत नहीं थी। ट्रम्प कार्यकाल में ही अमेरिकी फ़ौज को वापस बुलाया जाना था लेकिन फिर कहता है की मई 2020 में आएगी। लेकिन इसके बाद अमेरिका में जो बाईडेन की सरकार आ जाती है ट्रम्प हर जाते हैं जो बाईडेन कहते है सैनिक अब September में आएगी और बाकि के बचे सैनिक 11 September को बुलाएंगे क्योंकि 9/11 को पूरे 20 साल हो जाएंगे।
और जैसे ही अमेरीका ऐलान करता की उसका सैनिक अफगानिस्तान से वापस आयेंगे और वापस होने भी लगते हैं करीब 3000 से 4000 के आसपास ही अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिक बचते हैं। तालिबान को फिर से मौका मिल जाता है लग रहा हो जैसे तालिबान घात लगाए बैठा था। अमेरीकी सैनिक लगभग जा चुके थे तालिबान को अफगानिस्तान के फौज की ताकत पता थी अब अफगानिस्तान का मैदान खाली था और ये मौका अच्छा था अब तालिबान के लिए रास्ता आसान था और अचानक 20 साल से सोया तालिबान 2021 के जुलाई अगस्त महीने में जाग जाता है और धीरे धीरे अफगानिस्तान के हर क्षेत्र पर कब्जा कर लेता है।
1998 के मुकाबले 2021 मे खून खराबा नहीं हुआ, क्योंकि जहां जहां तालिबान कब्ज़ा के लिए गया वहाँ वहाँ अफगानिस्तान के सैनिक ने अपना हथियार डाल दिया ज्यादतर इलाको का गवर्नर ने आसानी से अपना पद छोड़ दिया वो खून खराबा नहीं चाहते थे। तालिबान का काबुल पहुंचते ही वहाँ के President अशरफ गनी अफगानिस्तान छोड़ कर भाग जाता है, पूरे अफगानिस्तान की लघभग 4 करोड़ आबादी है काबुल एक घनी आबादी वाला शहर है जिसमें करीब 50 लाख आबादी है। जिस वजह से वहाँ की सरकार खून खराबा नहीं चाहते थे और चुपचाप तरीके से शाम होते ही President अशरफ गनी हवाई जहाज से ताजिस्क्तान भाग जाते हैं पक्का कहा नहीं जा सकता है।
सारी सत्ता तालिबान के हाथो मे देकर चले जाते हैं अफगानिस्तान के लोगों को उनके हालात पर छोड़ कर और इस तरह 21 साल बाद तालिबान काबुल पर कब्जा कर लेता है। अब तालिबान की सरकार है हुकुमत है नया कानून होगा जब 1998 मे अफगानिस्तान में तालिबान आया तब सिर्फ 3 देशों ने तालिबान को मान्यता दी थी पाकिस्तान सऊदी अरब और UAE. लेकिन अभी तक तालिबान सरकार की किसी देश ने मान्यता नहीं दी है। अब ये देखना है कि अफगानिस्तान (Afghanistan) का क्या होता है क्या पहले की ही तरह शरिया कानून लागू होता है।
अफगानिस्तान (Afghanistan) में बहुत से बाहर के देशो से आये लोगो को उसके अपने अपने देश की सरकार ने जहाज से अपने देश ले आया जिसमे से हमारा देश भारत भी शामिल है। अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान के आने से लोगो में बेहद ही खौफ का माहौल है तालिबान के पास कहते हैं करीब 70000 हजार लड़ाकू है और सत्तर हज़ार सैनिक अफगानिस्तान (Afghanistan) के 3.5 लाख सैनिक पर भारी पड़ा। अफगानिस्तान के पास अपना एयरफोर्स था, लेकिन कोई काम नहीं आया अफ़गानिस्तान में तालिबान के आने से बहुत से बदलाव आयेंगे हो सकता है पहले के ही तरह शरिया कानून लागू हो।
और उसके नाम फिर से अफगानिस्तान (Afghanistan) में हैवानियत शुरू होगी जो 1998 से 2001 के बीच हुई थी, इस बार तालिबान के अधिनिस्त अफगानिस्तान में क्या होगा? क्या होनेवाला है कुछ कहा नहीं जा सकता है क्योंकि अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा है उसके मन में क्या चल रहा है आने वाले कुछ दिनों में तालिबान क्या केरगा कोई नहीं बता सकता है। या फिर से अफगानिस्तान (Afghanistan) में किसी देश का कठपुतली सरकार आएगी कुछ कहा नहीं जा सकता है।
फ़िलहाल तालिबान के पास आये दिन नए नए हथियार आ रहे है जिसकी नुमाइश वो करते है और उसकी विडियो बनाते है जिसको आप YouTube पर देख सकते हैं। तालिबान के पास फ़िलहाल बहुत सी नई टेक्नोलॉजी के हथियार है दुश्मन पर नजर रखने के लिए नाईट विजन ड्रोन तक है एंटी मिसाइल क्राफ्ट है, कई आधुनिक एयर क्राफ्ट है। तालिबान के पास इतना सारा आधुनिक क्राफ्ट और हथियार कहाँ से आ रहा है पता नहीं लेकिन अमेरिका Afghanistan के हाल पर छोड़ के क्यों लौट आया? 20 साल तक अमेरिका अफगानिस्तान में रहा 2001 में पहली बार तालिबान की सत्ता को खत्म किया Afghanistan में अपना बेस बनाया था।
उसके बाद वहां नई सरकार बनी अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान (Afghanistan) में रही उस दरमियाँन अमेरिका हजारो सैनिक तक भी मारे गए और एक रिपोर्ट के मुताबिक अफगानिस्तान के भी करीब 70 हजार सैनिक मारे गए। न जाने करोड़ डॉलर अमेरिका अफगानिस्तान (Afghanistan) में खर्चा किया वहां के सैनिको को ट्रेनिंग देने के लिए अपना base और Air Base नाने के लिए।
लेकिन अब इसके बाद अमेरिका के सैनिक अब वापस लौट चुके है, अफगानिस्तान (Afghanistan) के हाल पर छोड़कर, जोई बाईडन ने कुछ समय पहले ही एक बयान दिया था और कहा था ऐसा भी नहीं है की अफगानिस्तान (Afghanistan) पर तालिबान इतना जल्दी कब्ज़ा कर लेगा अफगानिस्तान के फ़ौज बहुत ही अच्छे से trained थी। के बावजूद मुश्किल से 10 दिन लगे होंगे कि तालिबान अफगानिस्तान (Afghanistan) के एक तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया और बहुत ही कम समय में अफगानिस्तान (Afghanistan) के राजधानी काबुल पर कब्ज़ा कर लिया।
काबुल Airport हुए आत्मघाती बम धमाका
26 August and 2021 हुए काबुल Airport पर आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी ISIS ने लिया है। इस बम धमाके की जानकारी तालिबान को पहले से ही थी बावजूद इसके अफगानिस्तान लोगों को वहां से नहीं हटाया आखिर इसके पीछे वजह क्या हो सकती है कुछ कहा नहीं जा सकता है। ISIS तालिबान से भी ज्यादा खतरनाक है उसके समाने तालिबान कुछ भी नहीं है।