सीवान का सुल्तान: मोहम्मद शहाबुद्दीन का अपराध से सांसद बनने का सफर, 70+ केसों की दास्तान | Shahabuddin history

शहाबुद्दीन का जीवन परिचय : Mohammed Shahabuddin biography in hindi

बिहार का सिवान जिला का नाम आते ही बाहुबली और डॉन मोहम्मद शहाबुद्दीन का नाम जहन में आता है। जो एक भारतीय बाहुबली नेताओ में से एक थे। और एक बहुत बड़े अपराधी भी, जिसका वर्चस्व बिहार के सिवान जिले से लेकर आसपास इलाकों में भी था। वे राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख नेता लालू प्रसाद यादव के बहुत करीबी नेता थे। और लोग उन्हे साहेब नाम से भी पुकारते थे। वे विधायक और सांसद के रूप में चुने गए, और आपराधिक गतिविधियों के कारण कई मामलों में सजा काट चुके थे। उम्रकैद की सजा भी हुई और कोरोना काल में कोरोना से संक्रमित होने के कारण उनकी मृत्यु हो गई।

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एक ऐसा बाहुबली की जिनका खौफ आम लोगों में तो था ही, साथ में नेताओं में भी बराबर थी। कहानी ऐसे बाहुबली नेता की जिनके अपराध के खिलाफ विपक्षी नेता भी तब तक नहीं बोलते थे, जब तक उसका कद शहाबुद्दीन के बराबर या उससे ऊपर नहीं हो जाती थी। कहानी उस नेता की जिन पर एसपी तक पर गोलियां चलाने के आरोप लगे। वारंट लेकर आए अधिकारी को पहले थप्पड़ मारा, और जब उसके प्रतिशोध में पुलिस ने छापेमारी की तो मुठभेड़ में पुलिस को गोलियों से भून दिया। कहानी उस नेता की जिसने वामपंथी राजनीति से अपने करियर की शुरुआत की। और उसके बाद वामपंथियों के लिए ही काल गया।

कहानी उस बाहुबली नेता की जिन पर पुलिस जब भी करवाई करना चाहा। तो लालू यादव और राबड़ी देवी उलटे शहाबुद्दीन को ही सपोर्ट करते थे। कहानी उस हत्याकांड का भी जिसमें शहाबुद्दीन पर अपने करीबी सीनियर और उस दौर के चर्चित छात्र नेता का हत्या का आरोप लगा। और उसके बाद पाकिस्तान के आतंकी संगठनों से हथियार खरीदने के भी आरोप लगे। इसी कड़ी में कहानी उन अधिकारियों की भी जिन्होंने शहाबुद्दीन को वह जगह दिखाई जो इस देश में एक अपराधी की होनी चाहिए। कहानी उन मां बाप की भी जो अपने बेटों की हत्या के बाद भी कभी शहाबुद्दीन से नहीं डरे। और सलाखों के पीछे पहुंचा कर ही दम लिया।

शहाबुद्दीन का जन्म परिवार व शिक्षा

शहाबुद्दीन का जन्म 10 मई 1967 को बिहार के सिवान जिले के जीरादेई के राजपूत बहुल गांव प्रतापपुर में हुआ था। वही जीरादेई जिसने देश को पहला राष्ट्रपति दिया। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जीरादेई के ही रहने वाले थे। शहाबुद्दीन के पिता का नाम शेख मोहम्मद हसीबुल्ला और माता का नाम मदीना बेगम था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सिवान में ही प्राप्त की। शहाबुद्दीन न सिर्फ शहाबुद्दीन थे बल्कि डॉक्टर शहाबुद्दीन थे। उन्होंने 1994 में डीएवी कॉलेज सिवान से पॉलिटिकल साइंस में मास्टर्स और बी आर अंबेडकर यूनिवर्सिटी मुजफ्फरपुर से 2003 में PhD की थी। 

शहाबुद्दीन छात्र जीवन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के स्टुडेंट विंग एआईएसएफ से जुड़े थे। लेकिन उसके बाद कम्युनिस्टों के खिलाफ ही हथियार उठाकर अगड़ी जाती और जमींदारों के लिए प्रिय हो गए। युवावस्था से ही वे राजनीति और अपराध की दुनिया में घुस गए थे।

शहाबुद्दीन का प्रारंभिक जीवन और राजनीतिक करियर : शहाबुद्दीन का आतंक

जैसे जैसे शहाबुद्दीन अपराध जगत की दुनिया में आगे बढ़ते गए सिवान को शहाबुद्दीन के नाम से लोग ज्यादा जानने लगे। खुद सिवान के लोग अपनी पहचान शहाबुद्दीन के नाम से बताते थे। शहाबुद्दीन अपने समय के बाहुबली और क्रिमिनल से बहुत अलग थे। कोई अंजान इंसान अगर साथ बैठकर बाते कर ले तो कभी यकीन होता कि उस इंसान पर किडनैपिंग, आर्म्स एक्ट, और हत्या के लगभग 45 मुकदमे दर्ज रहे हैं। शहाबुद्दीन पर लेफ्ट और जेडीयू के अनगिनत कार्यकर्ताओं और निर्दोष लोगों की हत्या का आरोप था। शहाबुद्दीन पर पहला केस सिर्फ 19 साल की उम्र में दर्ज हुआ था। और अगले साल भर में उन्हें ए ग्रेड क्रिमिनल यानी की हिस्ट्री शीटर घोषित कर दिया गया। मतलब कि जिसमें सुधार नहीं हो सकता।

कहते हैं कि समय के साथ जैसे जैसे शहाबुद्दीन की ताकत बढ़ रही थी। उन्होंने अगड़ी जातियों और व्यापारियों से भी वसूली करना शुरू कर दिया। सिवान के युवाओं को अपने गैंग में शामिल किया और अपने नेटवर्क से हिंदू और मुसलमानों दोनों को नौकरी दिलाने का काम करते थे। कुछ को खाड़ी देशों में भेजकर उन्हें नौकरी दिलाई। सिवान में सबसे ज्यादा फॉरेन करेंसी देने वाला जिला बन गया था। इस वजह से शहाबुद्दीन उनके लिए रॉबिनहुड बन गए, और उनके नाम के साथ साहेब का संबोधन जुड़ गया। शहाबुद्दीन के गैंग में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही होते थे।

सिवान के अंदर शहाबुद्दीन खुद ही सरकार, खुद ही सिस्टम और खुद ही न्यायालय थे। वह अपनी अदालत लगाते थे और खुद ही फैसला भी सुनाते थे। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में किसी भी विधायक को सजा देने का अधिकार ही नहीं है। और शहाबुद्दीन इसका उल्लंघन कर रहे थे। 

शाहबुद्दीन पर पहला FIR दर्ज: जमशेदपुर कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप मिश्रा की हत्या में हाथ

शाहबुद्दीन खुद एक शार्प शूटर थे, और ये सब एनसीसी ट्रेनिंग के दौरान सीखा था। हथियार चलाने की ट्रेनिंग कॉलेज के दिनों से ही थी। कहा जाता कि शुरुआती दिनों में उनका काम सुपारी लेकर लोगों की हत्या करने का था। मो. शहाबुद्दीन पर पहला FIR तो कॉलेज के दिनों में ही 1986 में दर्ज हुआ था। 2 फरवरी 1989 को एक बड़े हाई प्रोफाइल केस में उनका नाम जुड़ा। तीन लोगों की हत्या का केस था, जिसमें से एक जमशेदपुर यूथ कांग्रेस के जिला अध्यक्ष प्रदीप मिश्रा थे, की गोलियों से भूनकर हत्या कर दी। प्रदीप मिश्रा अपने एंबेसडर गाड़ी से टाटा स्टील पावर हाउस की ओर जा रहे थे। 

इस कार में जमशेदपुर का गैंगस्टर आनंद राव और जनार्दन चौबे भी थे। यह दोनों कांग्रेस से जुड़े हुए थे, तो पुलिस जांच में जुट गई। गई‌। जांच में दो गैंग की प्रतिद्वंद्विता का खुलासा हुआ। जो कि उस दौर में सामान्य था, ठेका कब्जा करने की लड़ाई अपना वर्चस्व कायम करने लिए। ठेकेदार वीरेंद्र सिंह, साहिब सिंह, दशरथ सिंह और कई लोगों ने अपने प्रतिद्वंदियों की हत्या की सुपारी दी थी। इस हत्याकांड में शहाबुद्दीन का नाम सामने आया, जिसने उसे मारने की सुपारी ली थी। रिपोर्ट के अनुसर इस घटना को ख़ुद शहाबुद्दीन ने अंजाम दिया था। 25 साल तक ट्रायल चलने के बाद अगस्त 2017 को जमशेदपुर कोर्ट ने शहाबुद्दीन को इस मामले में रिहा किया था।

शहाबुद्दीन के लिए सबसे बड़ी राहत ये थी कि जिन तीन लोगों ने इस मामले में सुपारी दी थी, ट्रायल के दौरान उनकी हत्या कर दी गई थी। चर्चा ये रही कि उस दौर में शहाबुद्दीन गैंग ने हिदायत खान नाम के एक बड़े गैंगस्टर की सुपारी ली थी। मगर जैसे ही हिदायत खान को यह भनक लगी तो मामला काफी आगे बढ़ गया। फिर एक समझौता हुआ जिसमें सारा मामला ही पलट गया। मतलब कि जिसने हिदायत खान की हत्या की सुपारी दी थी, शहाबुद्दीन ने हिदायत खान से उसी की हत्या की सुपारी ले ली और उल्टा उसी को मार दिया। 2017 में भी शहाबुद्दीन का खौफ कुछ ऐसा था कि प्रदीप मिश्रा के भाई परमानन्द मिश्रा और उसके बॉडीगार्ड ने भी शहाबुद्दीन के खिलाफ कोई गवाही नहीं दी।

कोर्ट ने इसके बाद सबूतों के अभाव में शहाबुद्दीन को इस केस से बरी कर दिया। शहाबुद्दीन भले ही अपराध की दुनिया में बहुत आगे बढ़ गए थे। लेकिन नेताओ के सामने उन्हें अपमान ही झेलना पड़ रहा था। बाकी बाहुबलियों की तरह उन्होंने भी राजनीति में एंट्री करने की सोची। लेकिन उससे पहले एक घटना जान लीजिए।

जब शाहबुद्दीन एक केस की पैरवी लेकर विधायक के पास गए

जीरादेई से कांग्रेस के एक विधायक थे कैप्टन त्रिभुवन सिंह, इन्होंने एक इंटव्यू में बताया था कि शहाबुद्दीन एक बार उनके सामने किसी केस की पैरवी लेकर आए। उन्होंने यह कहते हुए पैरवी करने से मना कर दिया कि वह किसी अपराधियों की पैरवी नहीं करते। शहाबुद्दीन को यह बात बहुत बुरी लगी। शहाबुद्दीन को धीरे-धीरे समझ आने लगा कि राजनीति ही वह जगह है जहां बड़े से बड़ा अपराध करने के बाद भी समझौते हैं, माफी है और फिर उसके बाद जो है वो कहीं भी नहीं है।

शाहबुद्दीन राजनीति में कैसे आए : निर्दलीय चुनाव लड़कर बने विधायक 

1990 विधानसभा चुनाव से पहले 26 मई 1989 को शहाबुद्दीन पर अटेम्प्ट टु मर्डर और आर्म्स एक्ट के तहत एक मुकदमा दर्ज हुआ। उसके बाद शहाबुद्दीन को सिवान पुलिस ने हिस्ट्री सीटर घोषित कर दिया। मुकदमा दर्ज होने के बाद वह जेल चले गए, लेकिन लोगों में शहाबुद्दीन का खौफ ऐसा कि अब तक किसी भी मामले में उसको सजा नहीं हुआ। क्योंकि उनके खिलाफ कोई गवाही ही नहीं देते थे। सजा ना होने के कारण राजनीति में आने का रास्ता अभी खुला था। उन दिनों बाहुबलियो के जेल से निर्दलीय चुनाव लड़ने और जीतने कि एक प्रथा बन गई थी। तो शहाबुद्दीन ने भी निर्दलीय पर्चा दाखिल कर दिया और कैप्टन त्रिभुवन सिंह के खिलाफ चुनाव में उतर गए।

शहाबुद्दीन हर हाल में यह चुनाव जीतना चाहते थे, क्योंकि हार बहुत महंगी पड़ सकती थी। मतलब एक हार और उनकी घेराबंदी शुरू हो जाती। वैसे शहाबुद्दीन पर शिकंजा कसना शुरू भी हो चुका था। बताया जाता है कि तब सिवान के एसपी ने एक दरोगा अशोक सिंह को शहाबुद्दीन पर कार्रवाई करने की पूरी छूट दे रखी थी। अशोक सिंह से बचने के लिए शहाबुद्दीन सबसे पहले त्रिभुवन सिंह के पास गए थे। लेकिन उन्होंने उनकी कोई मदद नहीं की। इसके बाद उन्होंने अपने किसी जानकार की मदद से लालू यादव से मुलाकात की और उनके सामने अपनी समस्या रखी। लालू ने शहाबुद्दीन को आश्वासन दिया कि दरोगा से बात कर लेंगे मगर एक हिदायत यह भी दी कि वो बिल्कुल शांत रहेंगे।

लालू से शहाबुद्दीन को एक और चीज चाहिए था और वह था जनता दल से टिकट। लेकिन लालू यादव ने शहाबुद्दीन को टिकट नहीं दिया। उन्होंने जनता दल के सिंबल पर राधिका देवी को जीरादाई से मैदान में उतारा। लेकिन शहाबुद्दीन किसी भी कीमत पर यह चुनाव लड़ना चाहता था। तो तय किया कि वह जेल से ही चुनाव लड़ेंगे। अटेम्प्ट टु मर्डर, आर्म्स एक्ट या मर्डर जिन भी मामलों में शहाबुद्दीन के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट थी। उसमें शहाबुद्दीन खुद सरेंडर कर दिया, शहाबुद्दीन को सिवान जेल में बंद कर किया गया। उन्होंने जेल से निर्दलीय पर्चा दाखिल किया, एक रिपोर्ट के अनुसार इस चुनाव में शहाबुद्दीन समर्थक की तरफ से जमकर बोगस वोटिंग की गई और वह निर्दलीय जीत गए। 

इस चुनाव में एक और बाहुबली ने इस सीट से चुनाव लड़ा था। नाम था हरेंद्र सिंह उर्फ पाल सिंह। इसको लेकर दो अलग-अलग कहानियाँ है, दोनों जेल में रहते हुए चुनाव लड़ा था। पाल सिंह ने अगड़ी जातियों के वोट काटे और जिसका नतीजा हुआ कि शहाबुद्दीन मुसलमानों का एकमुश्त वोट लेकर यह चुनाव जीतने में सफल रहे। वहीं दूसरी तरफ लालू यादव मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। शहाबुद्दीन को अपने सिर पर लालू यादव का हाथ चाहिए था। उन्होंने लालू यादव को अपना समर्थन दिया जिसके बाद से वह धीरे धीरे लालू के करीब चले गए।

विधायक बनने के बाद खुद की अदालत और अपराध में वृद्धि

विधायक बनने के बाद शहाबुद्दीन अपने गांव में ही अदालत लगाने लगे। फरियादी पुलिस स्टेशन की बजाय इसी अदालत में जाते थे। क्योंकि सिवान अब में शहाबुद्दीन के इजाजत के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता था। शहाबुद्दीन की अदालत में जो फैसला सुना दिया जाता था। उसको दावा करने की हिम्मत किसी में नहीं होती थी। शहाबुद्दीन अपने राजनीतिक पॉवर का इस्तेमाल करते हुए उन सभी लोगों को शांत कर दिया। जिससे उन्हें किसी भी प्रकार का खतरा था। इसमें सबसे बड़ा नाम आता है विश्वकर्मा चौहान का, जो कॉलेज में उनके सीनियर थे और उनका गैंग भी शहाबुद्दीन से ज्यादा ताकतवर था। विश्वकर्मा चौहान ने कई मौकों पर शहाबुद्दीन पर जानलेवा हमले किया।

विश्वकर्मा चौहान ने शहाबुद्दीन के करीबियों की हत्या भी की थी। लेकिन शहाबुद्दीन के विधायक बनने के बाद वह सिवान छोड़कर गोरखपुर चले गए। जहां हरिशंकर तिवारी ने उन्हें पनाह दिया। विधायक बनने के बाद शहाबुद्दीन ने कई बार बदला लेने की सोची, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए। इसके बाद किसी ने दोनों के बीच समझौता करा दिया। विश्वकर्मा चौहान की पत्नी ने शहाबुद्दीन को रक्षाबंधन में राखी बाँधी। चुनाव जीतने के बाद हरेंद्र सिंह उर्फ पाल सिंह शहाबुद्दीन से ज्यादा असहज रहने लगे। शहाबुद्दीन के चुनाव जीतने से पहले तक पाल सिंह का दबदबा उनसे कम बिल्कुल भी नहीं था। दोनों पहले भी पार्षद के चुनाव में एक दूसरे के आमने-सामने आ चुके थे।

लेकिन वह रद्द हो गया था मगर दोनों के बीच कभी इतना विवाद नहीं हुआ था। कि गैंगवार की शक्ल ले ले। इसी बीच एक शादी समारोह के दौरान फायरिंग में शहाबुद्दीन के एक करीबी दोस्त अफजल अहमद को गोली लग जाती है। उस समारोह में पाल सिंह भी शामिल थे, आरोप लगे कि उनकी मौत पाल सिंह के लोगों की गोलियों से ही हुई। उसके बाद शहाबुद्दीन पाल सिंह के खून के प्यासे हो गए। पुलिस ने इस मामले में पाल सिंह को आरोपी बनाया। पाल सिंह शहाबुद्दीन की नजरों से बचते हुए सरेंडर कर सिवान जेल चले गए। पाल सिंह ने समझौता संदेश भी भेजवाया कि यह जानबूझकर की गई हत्या नहीं है।

यह बस एक दुर्घटना थी, मगर शहाबुद्दीन के अंदर बदले की आग जल रही थी। शहाबुद्दीन ने तय किया कि अगर पाल सिंह को जेल में मारना मुमकिन नहीं है तो उनके परिवार के किसी सदस्य की हत्या करके इसका बदला लिया जा सकता है। यहां इरादा सिर्फ दहशत फैलाने का था। पाल सिंह के एक बड़े भाई थे ललन सिंह। सिवान शहर में उनकी दवा की सबसे बड़ी दुकान थी। सिवान में वो एक भले व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। देर रात दुकान के बाहर ही ललन सिंह कि हत्या कर दी गई। नाम आया शहाबुद्दीन का, इसके बाद सिवान हिन्दू मुस्लिम दंगे से प्रभावित रहा। इसी बीच पाल सिंह ने भी कसम खा ली कि अब वह इस हत्या का बदला शहाबुद्दीन की हत्या करके लेंगे।

सिवान में हिंसा इस कदर बढ़ चुकी थी कि मुख्यमंत्री लालू यादव को खुद एक दौरा करना पड़ा था। आग में घी डालने के लिए आनंद मोहन भी सिवान पहुंच गए। यह वह समय था जब आनंद मोहन लालू यादव की वजह से जनता दल से अलग होकर अपनी एक पार्टी बनाई थी। यहां आनंद मोहन के सजातीय व्यक्ति की हत्या हुई थी। पाल सिंह ने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए शहाबुद्दीन को मारने का प्लान बनाया। क्योंकि पाल सिंह खुद जेल में थे, तो इसे लीड करने की जिम्मेदारी दी दरौंदा से वर्तमान विधायक करनजीत सिंह उर्फ व्यास सिंह को। मगर शहाबुद्दीन को इस प्लान की खबर लग गई, और व्यास सिंह और उनके शूटर जाल में फंस जाते हैं।

व्यास सिंह को शहाबुद्दीन की गोली लगती है लेकिन वह जिंदा बच जाता है। यह गैंगवॉर चलता रहा लेकिन शहाबुद्दीन ने बड़े सपनो के आगे इस लड़ाई को विराम देने का तय किया।

शहाबुद्दीन का विधायक से पहली बार सांसद बनने का सफर

तीन चार सालों तक चले इस गैंगवार के बाद शहाबुद्दीन ने 1995 में जनता दल के विधानसभा का टिकट पर चुनाव लड़ा। और दूसरी बार विधायक बने, मगर शहाबुद्दीन की तैयारी अब सांसद बनने की थी। कोई कारण नहीं था कि लालू यादव शहाबुद्दीन को सांसदी टिकट न दे। शहाबुद्दीन जीरादेई से आगे, अब अपना विस्तार करना था। पाल सिंह अपने विधानसभा में शहाबुद्दीन का सपोर्ट दिलाने की क्षमता रखते थे। शहाबुद्दीन की बढ़ती शक्ति के आगे उन्होंने भी हथियार डाल दिया। आखिर में समझौता हुआ, शहाबुद्दीन अपनी पैरवी लगाकर पाल सिंह को जेल से बाहर निकाला। और पाल सिंह ने उनके लिए 1996 के लोकसभा चुनाव के लिए सिवान शहर और अगड़ी जातियों में शहाबुद्दीन का बेस बनाना शुरू किया।

यह समझौता अकेले पाल सिंह ने नहीं बल्कि पूरे परिवार का था। इसलिए व्यास सिंह भी नरम हो गए, शहाबुद्दीन और पाल सिंह के बीच इसके बाद पारिवारिक संबंध बन गए। एक रिपोर्ट के अनुसार  समझौते के बाद यह प्रेम इतना ज्यादा बढ़ गया कि शहाबुद्दीन कि बहन की शादी में पाल सिंह बारातियों का स्वागत कर रहे थे। और व्यास सिंह के तिलक में बिना शहाबुद्दीन के आए विधिविधान की शुरुआत तक नहीं हुई थी। शहाबुद्दीन जब पहली बार लालू यादव के पास टिकट के लिए गए तो टिकट नहीं दिया था। और निर्दलीय जीतकर अपनी वफादारी साबित करने और लालू यादव का समर्थन के कारण उन्हें 1995 में जनता दल से टिकट मिला।

शहाबुद्दीन को राष्ट्रीय जनता दल के सिंबल पर सिवान से लोकसभा का टिकट दिया गया। शहाबुद्दीन ने यह चुनाव जीतने के लिए पूरी ताकत लगा दी। शहाबुद्दीन का खौफ ऐसा था कि विपक्षी उम्मीदवार अपना पोस्टर्स तक लगाने से डरते थे। इस चुनाव में जगह जगह पर बूथ लुट की घटनाएं हुई। भाजपा के उम्मीदवार और सीटिंग सांसद जनार्दन तिवारी से शहाबुद्दीन ने लगभग दोगुना वोट लाएं और लोकसभा चुनाव जीत गए। शहाबुद्दीन के हर नॉमिनेशन में लालू यादव खुद शामिल होते थे। यह वो दौर था जब शहाबुद्दीन, तस्लीमुद्दिन और अब्दुल वारिश सिद्दीकी जैसे चेहरो को आगे करके लालू यादव मुसलमानों के हिमायती बन रहे थे।

इसका असर होता भी दिख रहा था, मगर इन सारे मुसलमान चेहरों में शहाबुद्दीन सबके हीरो बनते जा रहे थे। शहाबुद्दीन लालू के इतने करीबी हो गए थे कि पहली बार लोकसभा का चुनाव जीतने के साथ ही एचडी देवगौड़ा के यूनाइटेड फ्रंट सरकार में केंद्रीय राज्य मंत्री बनाने के लिए उनका नाम आगे किया। लेकिन किसी कारण लालू को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। सांसद बनने के बाद शहाबुद्दीन का कद अब और भी बड़ा हो चुका था। राष्ट्रीय जनता दल के भीतर अब डिसीजन मेकिंग में भी उनका रोल था। सांसद बनने के बाद शहाबुद्दीन के क्राइम का ग्राफ और भो बढ़ता चला गया। वह मसीहा भी बने लेकिन यहीं से पतन होना शुरू हो गया।

शहाबुद्दीन जितने में दोषी पाए गए उनमें कई मामले सांसदीय के पहले टर्म और उससे थोड़ा पहले का था। 

  • विधानसभा चुनाव : 1990 और 1995 में वे जिरादेई विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए।
  • लोकसभा चुनाव : 1996 से 2004 तक चार बार लगातार सिवान लोकसभा सीट से सांसद बने।
  • वे जनता दल के राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य भी रहे। बाद में आरजेडी में शामिल हो गए।

जब एसपी पर ही चलवा दी गोलियां : शहाबुद्दीन

लोकसभा चुनाव की वोटिंग से बस एक दिन पहले, तब सिवान के एसपी थे एस के सिंघल जो आगे चलकर बिहार के डीजीपी बने। लोकसभा चुनाव के दौरान सिवान में जगह जगह पर शहाबुद्दीन का आतंक था। एस के सिंघल शहाबुद्दीन को अपने कंट्रोल में रखना चाहते थे इसके लिए उस पर लगातार दबाव भी डाल रहे थे। जिससे शहाबुद्दीन असहज थे, और उन्होंने एसपी को ही डराने का प्लान बनाया, ताकि फिर वो उनके खिलाफ कोई करवाई न करे। अब तारीख 2 मई 1996 शाम के साढ़े सात बजे, एसपी एस के सिंघल अपनी गाड़ी से सिवान लौट रहे थे। दिन में दरौली मठिया गांव में हिंसा की खबर मिली थी। छानबीन के लिए वह अपनी टीम के साथ दरौली पुलिस स्टेशन गए थे।

साथ में उनके बॉडीगार्ड दिवाकर सिंह के अलावा चार कांस्टेबल रघुनंदन झा, रमेश कुमार यादव, आमिर कुमार और अशोक यादव भी थे। दरौली से सिवान के रास्ते में जैसे ही वह दोने बाजार पहुंचे, वहां 4 हथियारबंद लोग खड़े दिखे। एस के सिंघल ने अपने बॉडीगार्ड को उनसे पूछताछ करने के लिए भेजा। लेकिन गाड़ी देखते ही वह भागने लगे, एसपी उन हथियारबंद लोगों का पीछा करने लगे। जैसे ही एसपी की गाड़ी दोने टोला पहुंची उन हथियारबंद लोगों के बचाव में एक और कार आ गई। फिर दोनों गाड़ियों से एसपी की गाड़ी पर फायरिंग शुरू कर दी। आगे एक मोड़ पर गाड़ी रुकी, जहां 15 से ज्यादा हथियारबंद लोग थे।

फायरिंग करते हुए वह भाग गए, एसपी सिंघल भाग रहे तीन लोगों को पहचान लिया। पहले शहाबुद्दीन और बाकी दो उनके बॉडीगार्ड जहांगीर और खालिद। कोर्ट में एसपी सिंघल और उनके साथियों ने ऐसा बयान दिया। एसपी अगले दिन वापस लौट गए और अगले दिन शहाबुद्दीन पर अटेम्प्ट टु मर्डर, आर्म्स एक्ट, पब्लिक सर्वेन्ट की ड्यूटी में बाधा डालने का मुकदमा दर्ज किया गया। लगभग 11 साल तक ट्रायल चलने के बाद 30 अगस्त 2007 को पटना के स्पेशल कोर्ट ने शहाबुद्दीन को इस मामले में दोषी पाते हुए 10 साल की सजा सुनाई थी। फिर यह मामला हाइकोर्ट पहुंचा, कोर्ट में एस के सिंघल ने कहा था कि शहाबुद्दीन उन्हें मारने के उद्देश्य से यह हमला किया था।

जिसने AK 47 जैसे हथियार का भी इस्तेमाल किया गया। शहाबुद्दीन के तरफ से उनके वकील ने तर्क रखा कि एसपी दरौली गए ही नहीं थे। अगर ऐसा था तो इस बात को साबित करने के लिए कोई विटनेस या डॉक्यूमेंट्स क्यों नहीं है। और अगर उन्होंने दोने बाजार में इतने हथियारबंद लोग और गोलीबारी देखी तो पुलिस के अलावा कोई और गवाह क्यों नहीं है। लेकिन शहाबुद्दीन का खौफ ऐसा की उसके खिलाफ गवाही देने के लिए कोई आगे नहीं आता था। कोर्ट ने इस बात का संज्ञान लिया और अभियोजन पक्ष को पूरी तरह से खारिज नहीं किया। क्योंकि सारे विटनेस पुलिस के ही थे। तो एस के सिंघल पर यह भी आरोप लगा कि उन्होंने अपने लोगों को एकजुट कर जानबूझकर शहाबुद्दीन पर आरोप लगाए।

क्योंकि गवाहों के बयान में कई तरह के विरोधाभास (विसंगति) देखे गए। याचिकाकर्ता शहाबुद्दीन की तरफ से यह भी आरोप लगाया गया कि FIR दर्ज करने में लगभग 12 घंटे से भी ज्यादा का वक्त लगा। मतलब इस बीच अभियोजन पक्ष जो कि पुलिस ही हैं उसने सबूत के साथ छेड़छाड़ या सबूत को प्लांट किए होंगे। याचिकाकर्ता की तरफ से यह भी कहा गया कि सिवान लौटने के रास्ते में जीरादेई और मैरवा पुलिस स्टेशन भी पड़ता था। लेकिन वहां जाकर मुकदमा दर्ज करने की बजाय एसपी ने सिवान लौटकर मुकदमा दर्ज कराया। सिंघल की ओर से सफाई में कहा गया कि चूंकि वह जिले के एसपी थे तो सबसे पहले वह हेड क्वार्टर लौटे।

और फिर अपने सीनियर को इस घटना की जानकारी दी उसके बाद उन्होंने मुकदमा दर्ज कराया। मगर एक तर्क ने शहाबुद्दीन के पक्ष को थोड़ा मजबूत किया। उनकी तरफ से तर्क दिया गया कि अगर कोई व्यक्ति जानबूझकर किसी को मारने की कोशिश करता है तो हत्या का मुकदमा दर्ज होता है। लेकिन अगर व्यक्ति बच जाए तो अटेम्प्ट टु मर्डर का चार्ज लगता है। मगर इस केस में ऐसा कोई सबूत नहीं है। जिसमें किसी विटनेस को या किसी पुलिस वाले को कोई चोट पहुंचाई हो। या उनकी गाड़ी पर किसी ऐसे हमले का निशान हो। इसलिए अटेम्प्ट टु मर्डर का कोई आधार नहीं है।

पुलिस की तरफ से यह तर्क रहा कि उन्नत हथियार से हमले के सबूत हैं। इसलिए किसी को चोट नहीं आई। पटना हाइकोर्ट ने शहाबुद्दीन को अटेम्प्ट टु मर्डर के चार्ज में राहत देते हुए उसे केस से हटा दिया। लेकिन पब्लिक सर्वेंट के काम में बाधा के लिए धारा 353, आर्म्स एक्ट और अपराध के सामान्य इरादे लिए धारा 34 का केस कंटिन्यू रखा। बाहुबलियों में एक आदत होती है कि कितना भी अहंकार का टकराव हो। लेकिन वह पुलिस से टकराने की हिमाकत कभी नहीं करते। एक कांस्टेबल से भी टकराव मतलब पूरे महकमें से दुश्मनी। इस प्रतिशोध का शिकार पूर्व में कई बाहुबली हो चुके थे।

लेकिन शहाबुद्दीन सिस्टम को अलग लेवल पर जाकर नियंत्रण करना चाहते थे। ऐसा एक दुस्साहस शहाबुद्दीन ने दूसरी बार फिर तीसरी बार भी किया था। लेकिन तब के शहाबुद्दीन 1996 के शहाबुद्दीन से ज्यादा मजबूत थे। एक ऐसे केस के बारे में जिसकी गूंज दिल्ली और देश से बाहर तक चली गई थी। यह केस था जेएनयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या का। 

JNU के छात्र संघ अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या में शहाबुद्दीन का हाथ

शहाबुद्दीन का उदय ही माले के खिलाफ संघर्ष से शुरू हुई थी। मगर कॉलेज के दौरान वह सीपीआई के स्टूडेंट्स विंग एआईएसएफ यानी कि आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन से जुड़े थे। 90 के दशक में माले ने अगड़ी जातियों की जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। वह जमीनों पर कब्जा कर उसी भूमिहीनों में बांट रहे थे। अगड़ी जाति शिकायत लेकर पहुँच गए शहाबुद्दीन के पास, जहां भी उनकी जमीनों का कब्जा किया जाता, शहाबुद्दीन वहां पहुंचकर कब्जा वापस दिला देते। इसकी वजह से शहाबुद्दीन का बेस और भी मजबूत होता जा रहा था। शहाबुद्दीन पर माले के लगभग डेढ़ दर्जन कार्यकर्ताओं की हत्या का आरोप था।

इसके बाद सिवान में एक ऐसे व्यक्ति का उदय हुआ जिसने शहाबुद्दीन को काफी असहज किया। वह व्यक्ति थे JNU में दो बार के छात्र संघ अध्यक्ष और कैंपस के सबसे लोकप्रिय लीडर चंद्रशेखर। जेएनयू में चंद्रशेखर को लोग चंदू के नाम से बुलाते थे। जेएनयू से पहले चंद्रशेखर पटना यूनिवर्सिटी के छात्र थे। उन्होंने एनडीए क्लियर किया लेकिन बीच में छोड़कर लौट आए। इसके बाद उन्होंने पटना यूनिवर्सिटी से अपना ग्रेजुएशन किया। चंद्रशेखर जेएनयू से पीएचडी कर रहे थे। लेकिन कुछ वक्त के लिए उन्होंने डीरजिस्टर करके सिवान की राजनीति पर अपना फोकस किया।

चंद्रशेखर के सिवान आने के बाद से माले के कार्यकर्ताओ में एक अलग ही जोश आ गया था। चंद्रशेखर जेएनयू के वाद-विवाद संस्कृति से आते थे, सिवान में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज ही नहीं थी। सिवान के हर मामले में बस शहाबुद्दीन का ही राज था। चंद्रशेखर जगह-जगह नुक्कड़ सभा करते थे। जिसमे चंदू सरकार की आलोचना करते थे। शहाबुद्दीन पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से कभी कुछ नहीं कहते। वहीं कुछ लोग कहते कि उन्होंने शहाबुद्दीन के खिलाफ इतना बोला कि शहाबुद्दीन असुरक्षित महसूस करने लगे। चंदू की जैसी इमेज थी वह चुनाव लड़ने वाले को स्वाभाविक तौर पर असहज कर सकता था।

उस वक्त माले तीसरे नंबर का फोर्स था। 1995 के विधानसभा चुनाव में माले ने यहां के दो विधानसभा सीट मैरवा और दरौली जीती। इसके अलावा 1996 के लोकसभा चुनाव में भी उनका वोट शेयर 6 गुना तक बढ़ा। ऐसे में चंद्रशेखर का सिवान में आना शहाबुद्दीन को जरूर असहज कर सकता था। ऐसा नहीं की शहाबुद्दीन और चंद्रशेखर वह व्यक्ति थे जिनका कभी कोई आमना सामना नहीं हुआ। एनडीए क्लियर करने से पहले चंदू डीएवी कॉलेज सिवान के छात्र थे और वहां एआईएसएफ से जुड़े थे। इस दौरान शहाबुद्दीन एआईएसएफ के सदस्य थे। रजत शर्मा के शो आप की अदालत में शहाबुद्दीन ने बताया था कि वह उनको एआईएफएस में चंदू ने ही जोड़ा था।

क्योंकि वह उनके सीनियर थे। लेकिन शहाबुद्दीन के अपराधिक छवि के कारण चंदू उनसे खुद को किनारा कर लिया। शहाबुद्दीन का कहना था कि वह चंदू से काफी प्रभावित थे। विधायक बनने के बाद भी वह लगातार जेएनयू जाते थे और चंदू की कार्य शैली को समझने की कोशिश करते थे। और इस दौरान चंचंदू भी उन्हें गाइड करते थे। जब वह दिल्ली जाते थे तो वह चंदू के यहां ठहरते थे। लेकिन चंदू के साथी बताते हैं कि शहाबुद्दीन सिवान के किसी और लड़के के साथ ठहरते थे। और इस कोशिश में रहते थे कि चंदू से किसी तरह बातचीत हो जाए। लेकिन चंदू इन मामलों में अपने वसूलों के पक्के थे। और वह उनसे लगातार दूरी बना के रहते थे।

सिवान के अंदर दूसरे बड़े फोर्स भाजपा चुनाव में शहाबुद्दीन को चुनौती दे रही थी। लेकिन माले जमीन के मुद्दों से लेकर चुनाव तक शहाबुद्दीन के खिलाफ लड़ाई में उत्तर आए। 1996 में शहाबुद्दीन जब पहली बार सांसद बने तो माले ने चुनाव आयोग के सामने शहाबुद्दीन पर बूथ लूट की 256 शिकायतें दर्ज कराई थी। अब ऐसे में जब सिवान के कमान उस वक्त के सबसे लोकप्रिय स्टूडेंट लीडर चंदू को दी गई। तो शहाबुद्दीन के लिए निश्चित ही एक बड़ा पॉलिटिकल खतरा था। चंदू की लोकप्रियता की वजह से सिवान में बड़ा पॉलिटिकल चेंज आ सकता था। अब तारीख 31 मार्च 1997, दिन के 3 नुक्कड़ खत्म करके शाम में चंदू और उनकी टीम सिवान के जेपी चौक पर पहुंचे।

वहां पर भी उन्होंने नुक्कड़ खत्म किया नुक्कड़ खत्म करने के बाद जैसे ही वह अगली जगह पर जाने के लिए निकले कुछ हथियारबंद लोगों ने उन पर पिस्टल से फायरिंग कर दी। कुछ मिनट के बाद स्पोर्ट पर ही चंदू और उनके एक साथी श्याम नारायण यादव ने दम तोड़ दिया। जब आरोपियों की पहचान हुई तो नाम आया ऐसे लोगों का जो शहाबुद्दीन के बेहद करीबी थे। उसमें एक था ध्रुव जायसवाल जो कि शहाबुद्दीन का ड्राइवर था। इस केस में बेल मिलने के बाद भी वह शहाबुद्दीन के लिए ड्राइविंग करता था। इसके अलावा शेख मुन्ना, मंटू खान और रियाजद्दीन तीन लोग इस मामले में आरोपी बनाए गए। क्योंकि यह सारे लोग शहाबुद्दीन के बेहद करीबी थे, तो शहाबुद्दीन भी कटघरे में आ गए।

15 सालों तक लंबी ट्रायल चलने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च 2012 को इस मामले में तीन आरोपियों को उम्र कैद की सजा सुनाई। मगर इतने सालों के ट्रायल में सीबीआई ने शहाबुद्दीन के खिलाफ कोई चार्ज सीट तक दायर नहीं किया। आरोपियों ने शहाबुद्दीन का नाम तक नहीं लिया। इस मामले को भी राजनीतिक एंगल से देखा गया, केंद्र में यूपीए की सरकार थी। शहाबुद्दीन हमेशा चंदू की हत्या से इनकार करते रहे उनका कहना था कि चंदू उनके सबसे प्रिय मित्र और सीनियर थे। वहीं उन्हें राजनीति में लेकर आए थे उनकी हत्या वह कभी सोच भी नहीं सकते थे। वहीं चंदू की मां खुलकर कहती थी कि शहाबुद्दीन ने उनके बेटे की हत्या करवाई है।

क्योंकि चंदू उनसे ज्यादा योग्य नेता थे, अपने पूरे जीवन चंदू की मां शहाबुद्दीन को ललकारती रही कि मैं अपने घर में अकेले रहती हूं। शहाबुद्दीन को लगता है कि वह बड़ा शेर है तो आकर मुझे गोली मार दे। शहाबुद्दीन अपने सफाई में यही कहते रहे कि अगर वह इतने ही क्रूर होते तो चंदू की मां इतना कैसे बोल सकती है। अब मां पर क्या ही टिप्पणी करूं, इसके अलावा शहाबुद्दीन एक और माले नेता के किडनैपिंग और हत्या में आरोपी बने। जिसमें उनको उम्र कैद की सजा हुई। 16 फरवरी 1999 को शहाबुद्दीन और उनके दो लोगों ने माले नेता छोटेलाल गुप्ता को किडनैप कर लिया था। इस मामले में गवाह और मुखबिर शीतल पासवान ने कहा था।

एक रेलवे क्रॉसिंग पर उन्हें सांसद शहाबुद्दीन की गाड़ी दिखी थी, गाड़ी में से एक व्यक्ति ने छोटेलाल को बुलाकर पहले सीट पर बैठाया। और लेकर कहीं चले गए। इसके बाद जब छोटेलाल का कोई अता-पता नहीं चला तो दो दिनों बाद शहाबुद्दीन पर मुकदमा दर्ज कराया गया। शीतल पासवान इस मामले में एकमात्र गवाह थे, माले ने इस बार तय कर लिया था। कि शहाबुद्दीन को किसी भी तरह का क्लीन चिट नहीं मिलना चाहिए। इसलिए शीतल पासवान को अपने घर से हमेशा दूर रखा गया। इस बीच परिवार वालों को लगातार शहाबुद्दीन की तरफ से धमकियां मिलती रही। पुलिस ने कई सालों तक छोटेलाल गुप्ता को ट्रेस करने की कोशिश की।

और जब वह नहीं मिले तो उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। शीतल पासवान ने इस मामले में गवाही दी और 8 मई 2007 को सिवान कोर्ट के जज ज्ञानेश्वर श्रीवास्तव ने शहाबुद्दीन को हत्या के उद्देश्य से की गई किडनैपिंग का दोषी पाते हुए उम्र कैद की सजा सुनाई। इस मामले में शहाबुद्दीन अकेले आरोपी थे क्योंकि बाकी दो लोगों की पहचान नहीं की जा सकी। मार्च 2007 में शहाबुद्दीन को सिवान के माले ऑफिस पर अटैक करने का आरोप में भी सजा सुनाई गई थी।

चंदा बाबू के बेटो की हत्या : जिसने शहाबुद्दीन की जिंदगी जेल में ही बीत गई

अब कहानी उस केस की जिसने शहाबुद्दीन की जिंदगी को जेल में ही खत्म कर दिया। शहाबुद्दीन पर जितने भी अपराध के मुकदमे दर्ज हुए हो लेकिन उन्हें जितना मुश्किल सिर्फ एक केस में नाम आने से हुआ, उतना सब में मिलकर भी नहीं हुआ। केस था सिवान के ही रहने वाले चंदा बाबू के दो बेटों का मर्डर। 1996 में चंद्रकेश्वर प्रसाद उर्फ चंदा बाबू ने सिवान में घर खरीदा जिसमें उनकी छह दुकाने भी थी। चंदा बाबू ने दुकान खरीदने के बाद सभी दुकानदारों को दुकान खाली करने को कहा मगर एक दुकानदार ने बार बार कहने के बाद भी दुकान खाली नहीं किया। परेशान होकर चंदा बाबू ने दुकान पर अपना ताला लगा दिया। 

बस यहीं से विवाद शुरू होता है। इसके बाद यह मामला शहाबुद्दीन के लोगों के पास पहुंचा। उन लोगों ने चंदा बाबू से 5 लख रुपए की डिमांड की। कई सालों तक चंदा बाबू पर पैसों का दबाव बनाते रहे। उनके पास अच्छा खासा व्यापार था। तो शहाबुद्दीन को लगा के उनसे अच्छे पैसे मिल सकते हैं। मगर चंदा बाबू अपनी मेहनत की कमाई का पैसा शहाबुद्दीन को देने से मना कर देते हैं। 16 अगस्त 2014 को शहाबुद्दीन के लोग चंदा बाबू के दुकान पर पहुंच गए। उस वक्त वहां पर चंदा बाबू के दो बेटे राजीव रोशन और गिरीश राज थे। गुंडो के साथ मारपीट करने लगे हैं इसके बाद गिरीश बाथरूम से एक एसिड बोतल लेकर आए जिसके डर से वह गुंडे भाग गए। 

वहां से जाने के कुछ देर बाद फिर से वो लोग और बड़ी संख्या में दुकान पर पहुंचे। वो तीनो भाईयो राजीव, गिरीश और सतीश को किडनैप कर गन्ने के खेत में ले गए। इसके बाद राजीव को दोनों भाइयों से अलग करके रखा गया। राजीव ने इसके बाद शहाबुद्दीन का यह कहते सुना इन्होंने एसिड फेंका था तो इन्हें पता होना चाहिए कि एसिड कितना दर्द देता है। इसके बाद शहाबुद्दीन के लोगों ने गिरीश और सतीश का एसिड से नहला दिया। राजीव को अब तक किडनैप करके रखा गया था। लेकिन इस घटना के एक दो दिनों के बाद ही राजीव किसी तरह शहाबुद्दीन के चंगुल से भागने कामयाब रहे।

जब उन्होंने आकर बताया कि उनके दोनों भाइयों की हत्या कर दी गई है। तो उनकी मां कौशल्या देवी ने शहाबुद्दीन के तीन लोग राजकुमार शाह, शेख असलम आरिफ हुसैन पर किडनैपिंग और हत्या का मुकदमा दर्ज कराया। 10 साल तक ट्रायल चला लेकिन अगले हियरिंग में गवाही से 3 दिन पहले ही मुख्य गवाह राजीव राजेंद्र के भी गोली मारकर हत्या कर दी जाती है। चंदा बाबू ने राजीव की हत्या में शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा को आरोपी बनाया। 11 दिसंबर 2015 को सिवान के एक स्पेशल कोर्ट ने शहाबुद्दीन को दोनों भाइयों की हत्या के आरोप में सजा सुनाई।

शहाबुद्दीन को हत्या के लिए आईपीसी धारा 302, किडनैपिंग के लिए 364, सबूत को मिटाने के लिए 201 और क्रिमिनल कोस्परेसी के लिए 120 बी के तहत दोषी पाते हुए उम्र कैद की सजा सुनाई गई। इस फैसले के साथ ही राजीव रोशन के मर्डर केस में शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा पर भी चार्जेस फ्रेम किए गए। सिवान के स्पेशल कोर्ट से उम्र कैद की सजा मिलने के बाद शहाबुद्दीन ने पटना हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 2 मार्च 2016 को पटना हाइकोर्ट के जस्टिस अंजना मिश्रा और जस्टिस आर के मिश्रा की बेंच ने शहाबुद्दीन को सबूतों के अभाव में रिहा कर दिया। शहाबुद्दीन के वकील वाईवी गिरी ने कोर्ट के सामने तर्क रखा। कि उसके ऊपर इस मामले में घटना के 62 महीने बाद केस दर्ज किया गया था।

और उस घटना के दौरान सांसद जेल में थे। हाइकोर्ट को यह तर्क कन्वेंसिंग लगा। और शहाबुद्दीन को बेल मिल गया। मगर तीसरे भाई के मर्डर में आरोपी होने के कारण वह जेल में ही थे। शहाबुद्दीन पर तीसरे भाई राजीव रोशन का भी मुकदमा दर्ज हुआ था। 8 सितम्बर 2016 को पटना हाइकोर्ट ने इस मामले में भी शहाबुद्दीन को बेल दे दिया। और 11 सालों बाद वह जेल से बाहर आए। रिहा होने के बाद 1300 गाड़ियों का काफिला लेकर शहाबुद्दीन जेल से निकले। जब काफिला गुजर रहा था तो टोल टैक्स वाले साइड में खड़े थे। और जनता जय जयकार कर रही थी। शहाबुद्दीन जेल से निकलते ही लालू को अपना नेता बताते हुए नीतीश कुमार को परिस्थितियों का मुख्यमंत्री बताया।

चूंकि तब राजद और जदयू की सरकार थी, और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे, इसी मुख्यमंत्री ने 11 साल पहले शहाबुद्दीन को जेल भिजवाया था। और 2016 में परिस्थितियां ऐसी थी कि शहाबुद्दीन के नेता लालू यादव के समर्थन से ही नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हुए थे। शहाबुद्दीन की रिहाई की खबर सुनते ही सिवान में उन्हें उम्र कैद की सजा सुनाने वाले जज अजय कुमार श्रीवास्तव सिवान से बाहर अपने ट्रांसफर की अर्जी लगाई। और एक सप्ताह के बाद ही उन्हें पटना बुला लिया गया। मगर सबसे ज्यादा खौफ चंदा बाबू के परिवार में था। शहाबुद्दीन की रिहाई के फैसले पर चंदा बाबू ने कहा था कि कोर्ट का यह फैसला उनके परिवार के लिए मौत की सजा के बराबर है। 

हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद चंदा बाबू एकदम टूट गए थे। तीन बेटों की मौत के बाद उन्होंने अपना सब कुछ लगाकर अकेले ही शहाबुद्दीन को सलाखों के पीछे पहुंचाया था। उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट के फैसले को कोर्ट में चैलेंज करने के लिए उनके पास अब पैसे तक नहीं है। मगर चंदा बाबू के इस अपील ने इसे और चर्चा में ला दिया था। ऐसे में चंदा बाबू को साथ मिला सुप्रीम कोर्ट के चर्चित वकील प्रशांत भूषण का। प्रशांत भूषण ने मुफ्त में चंदा बाबू का केस लड़ने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में पटना हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील दायर की। प्रशांत भूषण ने दलील दी की हाई कोर्ट में अपना फैसला देते हुए केस की गंभीरता को समझने में गलती की है।

शहाबुद्दीन के द्वारा जिस तरीके से अपराध किए गए हैं। और पूर्व में जिस तरह से इकलौते विटनेस और चंदा बाबू के तीसरे बेटे की हत्या की गई है। उससे गवाही को प्रभावित करने और चंदा बाबू की जान को भी खतरा है। उन्होंने कोर्ट से शहाबुद्दीन के बेल को रद्द करने और उन्होंने सिवान जेल से तिहाड़ जेल शिफ्ट करने का आग्रह किया। सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ दो सप्ताह बाद हाईकोर्ट के फैसला को रद्द करते हुए शहाबुद्दीन को तिहाड़ जेल शिफ्ट करने का फैसला सुनाया। तिहाड़ जेल में बंद रहने के दौरान शहाबुद्दीन ने किसी के साथ भी अपना स्पेस शेयर नहीं किया था। और उन्हें जेल के सुरक्षित हिस्से में रखा गया था।

उनके अलावा दो और गैंगस्टर छोटा राजन और नीरज बवाना को भी बाकी कैदियों से अलग रखा गया था। जनवरी 2017 में शहाबुद्दीन का राजीव रोशन मर्डर केस में भी चार्जेस फ्रेम किए गए। तिहाड़ जाने के साथ ही शहाबुद्दीन नाम का खौफ खत्म हो जाता है। सारे नेटवर्क धाराशाही हो जाते है।अब अगर कुछ बचा था तो वह था पॉलीटिकल पावर, जो कि अभी 2 साल दूर था, यानी कि 2019 का लोकसभा चुनाव। हालांकि शहाबुद्दीन का रुतबा वहीं खत्म हो चुका था। जब हीना शाह पहली बार चुनाव हारी थी। नीतीश कुमार के सत्ता में आने बाद शहाबुद्दीन के लिए सिवान का चुनावी पॉलिटिक्स काफी मुश्किल हो गया था।

उसके जेल जाने से लॉ एंड ऑर्डर बेहतर हुआ, लोग वोट देने के लिए बहार निकले। विपक्षी पार्टीयों ने भी खुलकर कैंपेन किया। बूथ लुट की कोई घटना नहीं हुई, शहाबुद्दीन से थप्पड़ खाने वाले व्यक्ति ने 2009 के बाद 2014 में भी बड़े अंतर से हिना शाह को चुनाव में हराया। इससे यह काफी हद तक स्पष्ट हो गया था कि लोगों को अब तक डराकर वोट लिया जाता रहा। जनता का प्यार इतनी जल्दी धाराशाई नहीं होता। जैसा कि सिवान में हुआ, 2019 में सिवान को वापस पाने की जद्दोजहद शुरू हुई। राजद ने तीसरी बार हिना शाह को टिकट दिया। मगर इस बार कविता सिंह से लगभग सवा लाख वोटो से चुनाव हार गई।

शहाबुद्दीन के निधन के बाद राजनीतिक विरासत

शहाबुद्दीन के जीते जी लालू यादव ने उन्हें कितना बैक किया वो अपने जाना। चाहे मीडिया में कितनी भी बाते हो रही हो। लालू यादव ने यकीन दिलाया कि वह शहाबुद्दीन के साथ हमेशा खड़े हैं। लेकिन सहाबुद्दीन के मौत के बाद आरजेडी उनसे किनारा करने लगी। ऐसा पहली बार खुलकर 2024 के लोकसभा चुनाव में आया। जब आरजेडी ने हिना शाह को टिकट नहीं दिया। हिना शाह बीते 3 बार से चुनाव हार रही थी, शहाबुद्दीन की मौत के बाद राजद को भरोसा नहीं था कि हिना शाह राजद को सीट जीता कर दे सकती है। राजद ने अपने सिंबल पर अवध बिहारी चौधरी को उम्मीदवार बनाया।

वही व्यक्ति जिनका टिकट काटने में शहाबुद्दीन का नाम आया था। हिना शाह शहाबुद्दीन की राजनीतिक विरासत बचानी थी। इसलिए उन्होंने यह तय किया कि वह निर्दलीय ही चुनाव लड़ेगी। इस चुनाव में उन्हें अगड़ी जातियों खासकर राजपूतों का भरपूर समर्थन मिला था। इसके अलावा एक पार्टी पर आरोप लगे कि उन्होंने अपने कई वालंटियर्स को सिवान में हीना शाह का प्रचार करने के लिए भेजा था। हिना शाह बहुत मजबूती से चुनाव लड़ी। निर्दलीय लड़कर भी उन्होंने राजद के उम्मीदवार अवध बिहारी चौधरी से लगभग 1 लाख वोट ज्यादा लाई। लेकिन जीत हुई विजय लक्ष्मी देवी की, हिना शाह दूसरे नंबर पर रही।

इस नतीजे के बाद प्रशांत किशोर ने मुस्लिम वोटर्स को अपनी तरफ लाने की कवायद शुरू की। पटना के एक कार्यक्रम में कहा था कि बिहार का मुसलमान किरासन बनकर जल रहा है। मगर इससे घर किसी और का रोशन हो रहा है। उसके घर का अंधेरा दूर करने वाला कोई नहीं है। यहां किसी और के घर से तात्पर्य लालू परिवार से था। लगातार इस दबाव का नतीजा यह हुआ कि लालू ने शहाबुद्दीन परिवार को वापस राजद में शामिल होने के न्योता दिया। 27 अक्टूबर 2024 को लालू यादव और तेजस्वी यादव की उपस्थिति में हीना शाह और उनके बेटे ओसामा शाहब ने राजद की सदस्यता ली।

शहाबुद्दीन का बेटा क्या करता है?

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले शहाबुद्दीन का परिवार राजनीतिक रूप से काफी सक्रिय है। और इस बात की पूरी संभावना है कि शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा राष्ट्रीय जनता दल के टिकट पर जीरादेई से उम्मीदवार होंगे। 

पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या 

कहानी एक ऐसे पत्रकार की जिसने अपने कलम से शहाबुद्दीन की नाक में दम कर के रखा था। तारीख 13 मई 2016 सिवान के एक पत्रकार राजदेव रंजन शाम को अपने बाइक से दफ्तर जा रहे थे। वह अपने घर से कुछ ही दूर आगे बढ़े थे कि शहर के एक व्यस्त फल मंडी में पांच हथियारबंद लोगों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। राजदेव रंजन प्रदेश के एक बड़े अखबार हिंदुस्तान के ब्यूरो चीफ थे। उनकी गिनती सिवान के निडर पत्रकारों में होती थी। 90 के दशक और उसके बाद के सिवान को बिहार ने राजदेव रंजन की लेखनी से समझा था। राजदेव रंजन ने अपने कलम से उस वक्त की हत्या, किडनैपिंग, नरसंहार सब कुछ के बारे में लिखा। 

2015 के विधानसभा चुनाव में राजदेव रंजन की रिपोर्टिंग ने शहाबुद्दीन को बहुत असहज कर दिया था। उनकी हर दूसरी तीसरी खबर किसी न किसी तरह शहाबुद्दीन से जुड़ी होती थी। यहां तक कि वह शहाबुद्दीन का नाम छापने से भी पीछे नहीं हटते थे। किसी भी दौर में शहाबुद्दीन को टारगेट करना जान का खतरा लेने जैसा था। शहाबुद्दीन तब तिहाड़ जेल में बंद थे। लेकिन राजदेव रंजन एक पर एक खुलासे कर रहे थे। राजदेव रंजन ने एक खबर छापी कि 2015 की विधानसभा चुनाव में राजद के उम्मीदवार शहाबुद्दीन ही तय करेंगे। इसके लिए पार्टी के नेताओं की उनसे जेल में लगातार मुलाकात हो रही है। हेडिंग थी बिहार में पर्दे के पीछे से बाहुबली लड़वाते हैं चुनाव।

अपनी एक रिपोर्ट में राजदेव रंजन ने यह भी लिखा था कि अवध बिहारी चौधरी को राजद से टिकट इसलिए नहीं दिया गया। क्योंकि शहाबुद्दीन ने मना कर दिया। दूसरी एक बड़ी वजह थी कि राजदेव रंजन भाजपा से सिटिंग सांसद ओम प्रकाश यादव के बहुत करीबी दोस्त थे। इसके अलावा उन्होंने अपनी खबरों में ओम प्रकाश यादव की सहयोगी श्रीकांत भारती के मर्डर केस में भी खुलकर शहाबुद्दीन की तरफ इशारा किया था। जब सरकार से लेकर सिस्टम तक सभी शहाबुद्दीन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया था। राजदेव रंजन की कलम आग उगल रही थी तो यह निर्णय लिया गया कि उसे हमेशा के लिए शांत कर दिया जाए।

राजदेव रंजन की हत्या के बाद उनकी पत्नी आशा रंजन ने शहाबुद्दीन और उनके लोगों पर हत्या का मुकदमा दर्ज कराया। लेकिन ढील ढाल प्रक्रिया को देखते हुए आशा रंजन ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की। कि इस मामले में सीबीआई जांच हो इसके बाद बिहार सरकार के निवेदन और केंद्र सरकार के आदेश के बाद सीबीआई ने मामले में केस दर्ज किया। सीबीआई ने इसके बाद 21 अगस्त 2016 को क्रिमिनल कॉस्परेसी और हत्या के आरोप में शहाबुद्दीन और उसके 6 करीबी लड्डन मियां, ऋषि जयसवाल, रोहित सोनी, विजय गुप्ता, रंजीत कुमार और सोनू गुप्ता के खिलाफ सीबीआई कोर्ट में चार्जशीट दायर किया।

तब तिहाड़ जेल में बंद शहाबुद्दीन के खिलाफ आर्म्स एक्ट क्रिमिनल कॉस्परेसी और हत्या के मामले में चार्जशीट दायर की गई। राजदेव रंजन की पत्नी ने इस मामले में अपराधियों को शरण देने के लिए तेज प्रताप यादव पर भी मुकदमा दर्ज करने की मांग की थी। इस मामले में दो और लोगों पर हत्या का आरोप था। मोहब्बत कैफ और मोहम्मद जावेद। तेज प्रताप यादव के साथ दोनों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुई थीं। जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तेज प्रताप यादव को नोटिस दिया तो उनके वकील इस मामले में जवाब भी देना पड़ा था। की तेज प्रताप यादव का उन दोनों व्यक्ति से कोइ संबंध नहीं है। कैफ एक प्रोफेशनल क्रिकेटर था और शहाबुद्दीन का एक शार्प शूटर भी।

सरेंडर करने से पहले कैफ ने बयान दिए था कि वह शहाबुद्दीन और राजद का एक वोटर मात्र था। उसका शहाबुद्दीन या तेज प्रताप यादव के साथ कोई संबंध नहीं है। शहाबुद्दीन और तेज प्रताप यादव साथ उनकी मुलाकात बस एक समर्थक की हैसियत से थी। इस केस का ट्रायल चलता रहा, इसी बीच 1 मई 2021 को कोविड के कारण शहाबुद्दीन का निधन हो गया। इस मामले में एक ई विटनेस थी। बादामी देवी 24 मई 2022 को सीबीआई ने बादामी देवी को मृत घोषित करते हुए कोर्ट में उनका डेथ सर्टिफिकेट भी पेश कर दिया था। मगर 4 जून 2022 को वह कोर्ट उपस्थित हो गई। जिसके बाद कोर्ट ने सीबीआई को शो कॉज नोटिस जारी किया। 

1 नवंबर 2023 को इस मामले में अहम सुनवाई होनी थी। लेकिन उसके दो दिन पहले ही बादामी देवी कि मौत हो गई। शहाबुद्दीन की मौत के बाद सीबीआई पर यह आरोप लगने लगे कि वह बस औपचारिकता के लिए इस केस पर काम कर रही थी। 

आपराधिक गतिविधियां और विवाद

शहाबुद्दीन पर 30 से अधिक आपराधिक मामले दर्ज थे, जिनमें हत्या, अपहरण, विस्फोट और अवैध हथियार रखने जैसे आरोप शामिल थे।

  • दीपांकर भट्टाचार्य के अनुसार 1990 से 96 के बीच 6 सालों में शहाबुद्दीन गैंग के द्वारा माले के 93 कार्यकर्ताओं या समर्थकों की हत्या कर दी गई थी।
  • 1999 में चंद्रेश्वर प्रसाद (लोकतांत्रिक विचार मंच के नेता) की हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए।
  • 1998 में सीपीआई-एमएल कार्यालय पर बम हमला और हमला करने के लिए 2007 में दो साल की सजा।
  •  2005 में उनके घर पर पुलिस छापे में एके-47, ग्रेनेड और अन्य अवैध हथियार बरामद हुए।
  • सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत देने से इंकार कर दिया था। वे कश्मीरी आतंकी संगठनों, आईएसआई और दाऊद इब्राहिम से कथित संबंधों के लिए भी कुख्यात थे। सिवान में उनका इतना दबदबा था कि गवाहों को डराने-धमकाने के कारण कई मुकदमे प्रभावित हुए।
  • 2005 में दिल्ली से गिरफ्तार होने के बाद वे तिहाड़ जेल में बंद रहे।

जब आरजेडी को 39 विधायको की जरूरत थी तब शहाबुद्दीन ने……..

2000 बिहार विधानसभा चुनाव में 324 सीटों पर चुनाव हुआ, तब झारखंड बिहार का हिस्सा था। आरजेडी 124 सीटे जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। लेकिन सरकार बनाने के लिए उसे अभी भी 39 विधायको की और जरूरत थी। तब केंद्र में अटल वाजपेई की सरकार थी। और वह किसी भी हालात में बिहार में पहली बार एनडीए की सरकार बनाना चाहती थी। एनडीए नीतीश कुमार को आगे करके राज्यपाल को 151 विधायकों का समर्थन पत्र सौंपा। नीतीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बनते हैं। लेकिन बहुमत परीक्षण तक उन्हें और 13 विधायकों का समर्थन चाहिए था। और आरजेडी को 39 विधायको की जरूरत थी।

2000 बिहार विधानसभा चुनाव में सूरजभान सिंह, मुन्ना शुक्ला, राजन तिवारी, सुनील पांडे, रामा सिंह और धूमल सिंह सहित 12 हिस्ट्री शीटर्स ने जेल से ही निर्दलीय चुनाव जीतकर अपना समर्थन नीतीश कुमार को दिया था। और उधर आरजेडी बहुमत परीक्षण से पहले अपनी सीट की संख्या बढ़ाने में लगी थी। शिबू सोरेन जिन्होंने एनडीए को पहले ही अपने 12 विधायकों का समर्थन दे चुके थे। उन्होंने अलग झारखंड राज्य की शर्त पर आरजेडी से सांठगांठ कर लिया था। सेकुलर फोर्सेस के नाम पर वामपंथी पार्टियां भी आरजेडी के साथ आ चुकी थी। अब सबसे बड़ा चैलेंज था कांग्रेस को साथ लाना। कांग्रेस ने यह चुनाव लालू के खिलाफ ही लड़ा था।

लेकीन कांग्रेस किसी भी हालात में भाजपा को कमजोर करना चाहता था और तय हुआ कि आरजेडी को कांग्रेस अपना समर्थन देगी। कांग्रेस के पास 23 विधायक थे, इन समीकरणों से लग रहा था कि आरजेडी आराम से बहुमत परीक्षण पास हो जाएगी। लेकीन आरजेडी को कांग्रेस के विधायकों से बहुत डर था कि कहीं वह बहुमत परीक्षण के दौरान कहीं पलटी ना दे। ऐसे में उन्हें संभालने की जिम्मेदारी दी गई एक बाहुबली सांसद शहाबुद्दीन को जिन्होंने कांग्रेस के 8 और एक निर्दलीय विधायक को किडनैप कर राजधानी पटना के आलीशान होटल पाटलिपुत्र में रखा था। उन विधायकों को यह निर्देश था कि वह राबड़ी देवी को ही अपना समर्थन दे।

उन्हें अगर इसकी कीमत चाहिए तो वह, वो भी बता दे। और जब एक बार इनमें से दो लोगों ने भागने की कोशिश की। तो शहाबुद्दीन ने अपने दोनों हाथों में पिस्टल दिखाते हुए उन्हें कहा कि दोबारा ऐसी गलती मत करना। पिस्टल दिखाते हुए उन्हें कमरों में जाने का इशारा किया गया। डर से दोनों चले भी गए, अगर उन्हें किसी चीज की जरूरत है तो वह उनके कमरे तक पहुंच जाएगा। शहाबुद्दीन ने विधायकों को किडनैप कर रखा है। इसकी जानकारी शहर भर के सारे पत्रकारों को थी। सरकार और पुलिस को भी थी। इसके बाद उन विधायक को सीधे बहुमत परीक्षण के दिन विधानसभा में पेश किया गया। इन विधायकों ने राष्ट्रीय जनता दल को अपना समर्थन दिया और राबड़ी देवी तीसरी बार मुख्यमंत्री बन जाती है।

शहाबुद्दीन का खौफ ऐसा कि वीणा शाही को छोड़कर कांग्रेस के किसी भी विधायक ने क्रॉस वोटिंग नहीं की। एक दर्जन विधायकों में से वह दो विधायक थे रामजतन सिन्हा और जगदीश शर्मा जिन्हें पिस्तौल दिखाकर शहाबुद्दीन ने अपने कमरे में जाने को कहा था। रामजतन सिन्हा वह व्यक्ति थे जिन्होंने पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में लालू यादव को हराया था। जगदीश शर्मा, घोसी विधानसभा से आठ बार विधायक थे जिनमें कई बार तो निर्दलीय बने और जहानाबाद से एक बार सांसद भी रह चुके हैं। 

तब नीतीश कुमार के हाथ में पुलिस भी थी। अरुण सिन्हा आगे लिखते हैं कि उन्होंने इसके बाद नीतीश कुमार से इस बारे में पूछा कि वह क्या करने जा रहे हैं। क्या उन्हें नहीं लगता कि होटल पर पुलिस को रेड डालना चाहिए। तब नीतीश कुमार ने जवाब दिया था कि उन्होंने इसकी जिम्मेदारी सरयू राय को दी हुई है। लेकिन पाटलिपुत्र होटल में कोई रेड नहीं पड़ी। अरुण सिन्हा लिखते हैं कि उस दिन अगर नीतीश कुमार इस मामले में थोड़े सख्त होते और विधायकों को किडनैप करने के मामले में करवाई करते तो शायद उन्हें अपनी कुर्सी नहीं गंवानी पड़ती। लेकिन यह भी सच है कि बिहार के विधायक सांसद भी शहाबुद्दीन को अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहते हैं। 

शहाबुद्दीन के सामने कुर्सी पर नहीं बैठते थे जेलर

शहाबुद्दीन के लिए सिवान के जेल में होना और घर में होना एक समान थी। जेल में रहते हुए शहाबुद्दीन सिवान के जिला अस्पताल में भर्ती हो गए। उस दौर में सारे बाहुबली जेल से ज्यादा अस्पताल में ही पाए जाते थे। शहाबुद्दीन ने अस्पताल के एड्स वार्ड को पूरे अपजे कब्जे में लेकर वहीं पर अपना दफ्तर बना लिया। फिर यहीं रोज अदालत भी लगनी शुरू हुई। जबकि शहाबुद्दीन एड्स के मरीज नहीं थे। जेल को लेकर टाइम्स आफ इंडिया के पत्रकार एन आर मोहंती ने अपना अनुभव बताया था। कि एक बार वह शहाबुद्दीन का इंटरव्यू करने के लिए जेल अथॉरिटी से परमिशन मांग रहे थे लेकिन जेल अधीक्षक ने जिला प्रशासन से आर्डर लाने को कहा।

लेकिन जैसे ही शहाबुद्दीन को पता चला उन्हें अंदर बुला लिया। अंदर जाने के बाद वह यह देखकर दंग रह गए कि शहाबुद्दीन जेल सुपरिंटेंडेंट की कुर्सी पर बैठे थे। और सुपरिंटेंडेंट शहाबुद्दीन के समर्थकों के साथ जमीन पर। सिवान के अंदर शहाबुद्दीन ने अधिकारियों के पावर को सीज करके अपना सिस्टम चलाया। तब के पत्रकार बताते हैं और यह सुनी सुनाई बातें भी हैं कि शहाबुद्दीन जिला अधिकारी और एसपी की कुर्सी पर बैठकर किसी मामले में अपना फैसला सुनाते थे। चाहे दफ्तर किसी का भी हो अधिकारी उनके गुलाम ही होंगे। 

अब आते हैं उस स्टोरी पर जब उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल की सरकार बनाने में सबसे अहम भूमिका निभाई। शहाबुद्दीन असल में सबसे ज्यादा ताकतवर होते हैं 2000 के विधानसभा चुनाव के बाद। जब उन्होंने बहुत मुश्किल से राष्ट्रीय जनता दल को पांच और सालों के लिए प्रदेश की सत्ता दिलाई थी। 

पुलिस बल पर चलवा दी गोलियां 

बाहुबली चाहे कितना भी ताकतवर हो वह पुलिस से पंगा कभी नहीं लेता। क्योंकि एक पुलिस पर किया गया हमला पूरे महकमे पर हमला माना जाता है। फिर चाहे उस महकमे को सरकार का समर्थन प्राप्त हो, या फिर न हो। वह कभी न कभी बदला जरूर लेगा। 2001 की एक घटना है जिसमें संजय नाम के एक इंस्पेक्टर शहाबुद्दीन के घर पर एक गिरफ्तारी वारंट लेकर आते हैं। यह वारंट एक स्थानीय नेता मनोज कुमार पप्पू के लिए था। जब उस वारंट की सूचना देते हुए इंस्पेक्टर संजय कुमार, मनोज कुमार को गिरफ्तार करने की बात कहते हैं तो शहाबुद्दीन इंस्पेक्टर को थप्पड़ जड़ देते हैं।

जिसके प्रतिशोध में एक घटना घटती है जिसमें शहाबुद्दीन और पुलिस दोनों तरफ से गोलियां चलती है। जिसमें दो पुलिसकर्मी सहित 10 लोग मारे जाते हैं। अब इस घटना के बारे में जब शहाबुद्दीन से पूछा गया तो उन्होंने एक अलग कहानी बताई। हालांकि यह बात जांच में भी सामने आई थी, तब सिवान में एक बोर्ड परीक्षा चल रही थी। एक डीएसपी अपने बेटे को स्कूल में अलग बैठाकर कॉपी लिखवा रहे थे। इसी दौरान स्कूल के प्रिंसिपल प्रभुनाथ पाठक ने शहाबुद्दीन से शिकायत करते हुए उन्हें स्कूल में बुला लिया। शहाबुद्दीन स्कूल पहुंचे और उन्होंने डीएसपी को बोला कि आपका बेटा बाकियों कि तरह ही हॉल में बैठकर परीक्षा लिखेगा।

आपको यहां बैठने की परमिशन किसने दी है। डीएसपी ने एक कागज दिखाया जिसमें एसपी बच्चू सिंह मीणा का परमिशन था। शहाबुद्दीन का कहना था कि अनऑफिशियल तरीके से वहां जाना उनकी एक बड़ी गलती थी। डीएसपी की जिद के कारण वहां धक्का मुक्की हुई। और बस इसी के प्रतिशोध में एसपी बच्चू सिंह मीणा के नेतृत्व में यह ऑपरेशन चला जिसमें कई निर्दोष लोगों की हत्या हो गई। शहाबुद्दीन का कहना था कि उसमें ज्यादातर लोग जो मारे गए थे वह गांव में रहते भी नहीं थे। वह एक सप्ताह पहले ही अरब देशों से कमा कर लौटे थे। सब उनसे मिलने के लिए घर पर आए थे। जिन्हें उनका गुर्गा बताकर पुलिस ने मार गिराया।

इस घटना को ग्राउंड से कवर करने वाले बिहार के चर्चित क्राइम रिपोर्टर ज्ञानेश्वर बताते हैं कि शहाबुद्दीन के गांव प्रतापपुर में ऐसा तांडव मचा था कि घर के कई हिस्सों में पुलिस ने गोलियां दागी थीं। दोनों तरफ से कई घंटों तक ताबड़तोड़ फायरिंग हुई थी। पुलिस ने घर के अंदर तक घुसकर करवाई की थी। लेकिन शहाबुद्दीन किसी तरह बाल बाल बच गए। इस घटना के कुछ घंटे बाद जब ज्ञानेश्वर ने शहाबुद्दीन से मुलाकात की तो शहाबुद्दीन ने ऑन रिकॉर्ड यह छापने को कहा था कि बच्चू सिंह मीणा को वह राजस्थान तक जाकर मारेंगे। अब उसका जिंदा बच पाना संभव नहीं है, बच्चू सिंह मीणा बिहार में एडीजी रैंक के अधिकारी रह चुके हैं।

हालांकि तब अगले ही दिन बच्चू सिंह मीणा ट्रांसफर कर दिया गया था। राजद के एक सीनियर लीडर बताते हैं कि शहाबुद्दीन और पुलिस के बीच तब मुठभेड़ इस लेवल तक बढ़ गई थी। कि बिहार पुलिस ने सेना और पारा मिलट्री फोर्स तक की डिमांड कर दी थी। बाहुबलियों के पुलिस से इतने पंगे शायद ही सुना होगा। बच्चू सिंह मीणा, एस के सिंघल और अब नए एसपी रतन संजय। पुलिस की करवाई देखकर आपके दिमाग में दो बाते आएंगी कि क्या शहाबुद्दीन ने वह सारे क्राइम किए होंगे। जिन मामलों में उन पर चार्जेस फ्रेम हुए होंगे। या वो पुलिस महकमे का वो गुस्सा तो नहीं है जो हर आने वाला एसपी उनपर उतार कर जा रहा है।

कई सारे केसेस में देखा गया कि पुलिस की तरफ से कुछ न कुछ कमियाँ रही। जैसा कि आपने एस के सिंघल के मामले में देखा। जब कोर्ट ने शहाबुद्दीन के ऊपर से अटेम्प्ट टु मर्डर के चार्जेस हटा दिए। जैसे जैसे वक्त आगे बढ़ रहा था, शहाबुद्दीन पर पुलिस की गिरफ्फ और भी मजबूत होती जा रही थी। अधिकारी शहाबुद्दीन पर करवाई करने से पहले किसी से पूछना तक जरूरी नहीं समझ रहे थे। एक चर्चा यह भी रहती थी कि लालू यादव के होते हुए भी अगर शहाबुद्दीन पर इतनी बड़ी करवाईयां हो रही थी। क्या इसके पीछे लालू यादव का ही तो हाथ नहीं है। तब एक चर्चा ये थी कि रंजन यादव के साथ मिलकर शहाबुद्दीन राजद को तोड़ने की योजना बना रहे थे। 

एक डीजीपी जिसने शहाबुद्दीन के नाक में दम कर दिया

कहानी उस अधिकारी की जिसने शहाबुद्दीन पर करवाई करने के लिए लालू राबड़ी से पूछना जरूरी नहीं समझते थे। मुख्यमंत्री के सबसे प्रिय नेता जिन्हें वह अपना छोटा भाई कहते थे। उन पर बार बार शिकंजा कसता जा रहा था, और सरकार कुछ नहीं कर पा रही थी। आखिर एक एसपी में इतना हिम्मत कहाँ से आ रहा था। करवाई के तुरंत बाद ट्रांसफर होता और नए एसपी भी वही काम करते हैं। तो या सब मुमकिन था सिर्फ और सिर्फ डीपी ओझा की वजह से। वो बिहार पुलिस के डीजीपी थे, किसी टॉप ऑफिशियल्स की नियुक्ति ही इस बात पर होती है कि वह सरकार की हर बात सुनेगा और उसकी सहूलियत के हिसाब से काम करेगा।

मगर डीपी ओझा के साथ ऐसा नहीं था डीपी ओझा ने शहाबुद्दीन से जुड़ी सारी पुरानी केसों में करवाई शुरू कर दी। 2003 में जब डिपी ओझा ने मर्डर और अपहरण के एक पुराने मामले में शहाबुद्दीन पर करवाई शुरू की तो राबड़ी देवी उनसे बहुत खफा हो गई। उन्होंने लालू यादव से कहा कि इस करवाई से पहले डीपी ओझा ने उनसे सलाह तक नहीं ली। वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह अपनी किताब “रूल्ड और मिसरूल्ड बिहार” में लिखते हैं कि इसके तुरंत बाद ही लालू यादव ने डीपी ओझा को फोन करके पूरा मामला राबड़ी देवी से मिलकर समझाने को कहा। जैसे ही दोनों की मुलाकात हुई राबड़ी देवी उन पर गुस्सा हो गई।

लेकिन डीपी ओझा भी ज्यादा देर तक बर्दाश्त नहीं कर पाए। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में राबड़ी देवी से कह दिया ऐसे मामलों में गिरफ्तारी का निर्णय डीजीपी या सीनियर पुलिस अधिकारियों का होगा। भविष्य में भी वह मुख्यमंत्री से ऐसे मामलों में कोई सलाह नहीं लेंगे। डीपी ओझा एक बहुत कड़े मिजाज वाले IPS ऑफिसर थे। उन्होंने 1999 में ही सरकार को चैलेंज कर दिया था, तब डीपी ओझा विजिलेंस के कमिश्नर थे। 1982 सरकार एक सर्कुलर लेकर आई थी, इसमें यह प्रावधान था कि किसी भी बड़े अधिकारी विधायक या मंत्री पर मुकदमा दर्ज करने से पहले विजिलेंस को सीएम की परमिशन लेनी होगी।

डीपी ओझा ने इस सर्कुलर को पटना हाइकोर्ट में चैलेंज किया और कहा कि विजिलेंस खुद एक ऑथोरिटी है। और उसे किसी और ऑथोरिटी से परमिशन लेने की कोई जरूरत नहीं है। डीपी ओझा सरकार के खिलाफ यह केस जीत गए। डीपी ओझा लगातार कई सालों तक विजिलेंस में रहे और कई नेताओं अधिकारियों के लिए मुश्किलें खड़ी की। डीपी ओझा न सिर्फ अंदर खाने में शहाबुद्दीन के खिलाफ योजना बना रहे थे बल्कि सामने से आकर यह बताने में भी नहीं हिचक रहे थे। ओझा ने बयान दिया था कि सहाबुद्दीन एक हार्डकोर क्रिमिनल है तो उनसे उसी सख्ती से निपटा जाएगा ना कि माननीय जैसा व्यवहार होगा।

राजद की सरकार होने के बावजूद पूरा प्रशासन भी इसी मूड में था। जब डीपी ओझा शहाबुद्दीन पर कार्रवाई करवा रहे थे। तो शहाबुद्दीन ने कहा था की डीपी ओझा 6 महीने के बाद जब रिटायर हो जाएंगे तब उनके साथ हिसाब बराबर किया जाएगा। शहाबुद्दीन इतने पावरफुल थे कि उन्हें लगा होगा कि इस धमकी से डीजीपी डर जाएंगे। डीपी ओझा ने शहाबुद्दीन की धमकियों का जवाब देते हुए का था कि शहाबुद्दीन जैसे लोगों को मुझे शांत कराने के लिए तीन बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके पास सैकड़ो शूटर्स हैं, लेकिन मैं उसके आगे झुकने वाला नहीं। लालू यादव के साथ रिश्तों पर उन्होंने बोला कि चाहे उनके जो भी रिश्ते हो।

हमारे पास उन्हें गिरफ्तार करने के लिए पर्याप्त सबूत है। शहाबुद्दीन पर 18 केस है, हत्या, किडनैपिंग, जबरन वसूली, धमकी देकर रंगदारी मांगना और बड़ा से बड़ा कोई ऐसा अपराध नहीं है जो शहाबुद्दीन ने खुद नहीं किया हो या उनके निर्देशन में ना हुआ हो। उनको आईएसआई का एजेंट बताते हुए अलकायदा से भी उनका लिंक जोड़ा। डीपी ओझा अब तक शहाबुद्दीन पर सिर्फ बयान दे रहे थे। लेकिन 2003 में उन्होंने मुख्यमंत्री को 256 पेज की एक रिपोर्ट सौंपी और बताया था कि कैसे शहाबुद्दीन के दाऊद इब्राहिम और पाकिस्तान और कश्मीर के आतंकी संगठनों से रिश्ते हैं। रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र था कि मक्का मदीना में दाऊद इब्राहिम और शहाबुद्दीन की  एक मुलाकात हुई थी।

इसके अलावा रिपोर्ट में पुलिस की तरफ से कहा गया कि कश्मीर के आतंकवादी से शहाबुद्दीन भारी संख्या में एक-47 राइफल खरीदे थे। जिनमें से कई अपने व्यक्तिगत और गैंग के इस्तेमाल के लिए रखा और बाकी बिहार और यूपी के गैंगस्टर को बेच दिया। अप्रैल 2006 में बिहार पुलिस के स्पेशल टीम ने शहाबुद्दीन के प्रतापपुर स्थित घर पर एक बड़ी रेड की थी। जिसमें उनके घर से बड़ी संख्या में सेमी ऑटोमेटिक और ऑटोमेटिक हथियार मिले थे। जिस पर पाकिस्तान और ऑर्डिनेंस फैक्ट्री के लेवल भी लगे हुए थे। डीपी ओझा ने इसके बाद सार्वजनिक रूप से सत्ता पक्ष के नेताओं को अपराधियों का समूह बताया। इसके अगले ही दिन राबड़ी देवी ने डीपी ओझा को डीजीपी पद से हटा दिया था।

डीपी ओझा पर आरोप लगा कि वह 2004 का लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं। इसलिए वह शहाबुद्दीन पर शिकंजा कस के अपनी एक छवि बना रहे है। लेकिन डीपी ओझा पुलिस में रहते हुए शहाबुद्दीन के खिलाफ जितने बहादुर दिखे रहे थे उसके बाद उतना ही भाग रहे थे। शहाबुद्दीन के खिलाफ कोई भी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ना चाहता था। डीपी ओझा बिहार में इस बात के लिए बहुत ही चर्चित हुए थे। कि उन्होंने शहाबुद्दीन को पानी पिला दिया। अब जेडीयू और भाजपा यह चाहती थी कि डीपी ओझा सिवान में शहाबुद्दीन के खिलाफ चुनाव लड़े।

मगर वह बेगूसराय की सीट से लड़ना चाहते थे, अगर डीपी ओझा शहाबुद्दीन के खिलाफ चुनाव लड़ते तो कोई कारण नहीं था कि जेडयू उन्हें अपने सिंबल पर उम्मीदवार नहीं बनाते। शरद यादव ने बेगूसराय से राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह की उम्मीदवारी पहले ही तय कर दी थी। अंततः डीपी ओझा ने बेगूसराय ही चुना और निर्दलीय चुनाव लड़कर अपनी जमानत जप्त करवा ली। मगर जब भी शहाबुद्दीन से आईएसआई और कश्मीरी मिलिटेंट मिंट पर सवाल पूछा गया। तो उन्होंने कारगिल की याद दिलाई। शहाबुद्दीन आपकी अदालत में रजत शर्मा को बताते हैं कि कारगिल युद्ध के समय अकेले ऐसे वो सांसद थे जिन्होंने राष्ट्रपति से मिलकर एक प्रेजेंटेंशन दिया कि वह एनसीसी ट्रेंड है और बंदूक चलाना जानते हैं। 

अगर उन्हें अनुमति दी जाए तो वह देश के लिए सीमा पर लड़ना पसंद करेंगे। उन्होंने कहा की वह यह चाहते थे कि अगर उनकी मृत्यु हो तो देश के सरहद पर। शहाबुद्दीन ने कहा इस देश में बहुत आसान है किसी भी मुसलमान को आईएसआई का एजेंट बता देना। कश्मीरी आतंकवादी कनेक्शन पर उन्होंने कहा था कि वह 500 से ऊपर कश्मीरी बच्चों को अब तक पढ़कर डॉक्टर बना चुके हैं। उन बच्चों से मिलने वह कश्मीर जाते थे। जाते हैं और आगे भी जाते रहेंगे, अब इस संबंध को कोई कैसे देखता है और किस तरह कहां जोड़ देता है, उस पर मैं कुछ भी नहीं कह सकता।

हिंदुस्तान टाइम्स के एक्सक्लूसिव रिपोर्ट के अनुसार राजदेव रंजन की हत्या के बाद मई 2016 में इंटेलिजेंस ब्यूरो ने डीपी ओझा से संपर्क साधने की कोशिश की थी। और कहा था कि वह 265 पेज के उस डॉक्यूमेंट के डिटेल्स इकट्ठा करें। अपनी बर्खास्त के बाद डीपी ओझा ने सरकार से डिमांड की थी कि उस डॉक्यूमेंट को पब्लिक किया जाए। IB ने जब नीतीश कुमार सरकार से उस डॉक्यूमेंट को एक्सेस करना चाहा तो पता चला कि वह डॉक्यूमेंट गायब है। इसलिए IB के लोग डिपी ओझा से संपर्क कर डिटेल जुटाने की कोशिश में लगे थे। अब थोड़ी देर के लिए शहाबुद्दीन की क्राइम प्रोफाइल रोक कर बात करते हैं एक ऐसे व्यक्ति की जिसे सिवान के अंदर शहाबुद्दीन का गुना गणित बिगाड़ने का क्रेडिट जाता है। 

प्रभुनाथ सिंह और शहाबुद्दीन के बीच मुकाबला

जब भी शहाबुद्दीन के डाउनफॉल की बात होती है तो एक नाम बहुत प्रमुखता से लिया जाता है। वह नाम है महाराजगंज से पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह का। सिवान में दो लोकसभा सीटें हैं एक महाराजगंज जहां से प्रभुनाथ सिंह सांसद होते थे। और दूसरा सिवान जहां से शहाबुद्दीन। प्रभुनाथ सिंह फिलहाल उम्र की की सजा काट रहे हैं। 1995 विधानसभा चुनाव के पोलिंग के दिन उन पर छपरा में दो व्यक्ति की हत्या का आरोप लगा था। 1 सितंबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इस मामले में दोषी पाते हुए उम्र कैद की सजा सुनाई थी। रघुनाथ सिंह ने 1995 के विधानसभा चुनाव हारने के बाद मशरक के विधायक अशोक सिंह के आवास पर बम फेंकवा कर उनकी हत्या करवा दी थी। 

2017 में हजारीबाग कोर्ट और 2020 में पटना हाई कोर्ट ने इस मामले में प्रभुनाथ सिंह और उनके भाई को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। हत्या सारण में हुआ और फैसला हजारीबाग में। तो तब प्रभुनाथ सिंह का खौफ ऐसा था कि इस केस का ट्रांसफर सारण से हजारीबाग करना पड़ा था। सारण और सिवान के क्षेत्र में प्रभुनाथ सिंह अपने आप में एक राजनीतिक स्कूल हुआ करते थे। इनकी छत्र छाया में काम करते हुए कई लोग आगे चलकर विधायक और सांसद भी बने। रघुनाथ सिंह जेडीयू के नेता थे, और नीतीश कुमार के बेहद खास। प्रभुनाथ सिंह एक ऐसा चेहरा थे जिसे नीतीश कुमार को हमेशा उम्मीद राहत था कि वह शहाबुद्दीन का कोई कार्ड जरूर ढूंढेंगे।

प्रभुनाथ सिंह इसमें सफल भी रहे और धीरे-धीरे सिवान की जमीन शहाबुद्दीन के हाथों से खिसकती चली गई। प्रभुनाथ सिंह अलग अलग समय पर अपना गुट बदलते रहे। कभी लालू के साथ तो कभी नीतीश के साथ। लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद आनंद मोहन अगड़ी जातियों का जब अलग फ्रंट बना रहे थे, तब उनके साथ भी रहे। लेकिन चुनावी पॉलिटिक्स में कभी एक दूसरे के सामने नहीं आए। क्योंकि दोनों लोकसभा का जिला हेड क्वार्टर एक ही था। ऐसे में कई मामलों पर दोनों की सहमति जरूरी हो जाती थी। यह खींचतान चलती रहती थी। असल में नीतीश कुमार यह चाहते थे कि किसी भी तरह शहाबुद्दीन को हराया जाए।

साल 2000 के विधानसभा चुनाव में शहाबुद्दीन ही वह व्यक्ति थे जिनकी वजह से नीतीश कुमार की सत्ता एक सप्ताह भी नहीं टिक पाई थी। प्रभुनाथ सिंह ने सिवान से ओमप्रकाश यादव को चुनाव लड़ने का मन बनाया। जिला परिषद अध्यक्ष के चुनाव के समय शहाबुद्दीन ने डीएम के सामने एक व्यक्ति को थप्पड़ मार दिया था। नाम था ओम प्रकाश यादव, ओम प्रकाश यादव हर उस लड़ाई में कूदने को तैयार बैठे थे जो शहाबुद्दीन के खिलाफ लड़ी जा रही थी। ओम प्रकाश यादव मजबूती से चुनाव लड़े मगर हार गए। तब प्रदेश में लालू यादव की सरकार थी, और कहा जाता है कि शहाबुद्दीन के गैंग ने जगह जगह पर बूथ लुटा और ओम प्रकाश यादव के समर्थकों को वोट देने नहीं दिया।

नीतीश कुमार को एक बार फिर से निराशा हाथ लगी। इस चुनाव के नतीजे के बाद शहाबुद्दीन ने ओम प्रकाश यादव के घर पर अटैक भी करवाया था। जिसमें उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हुआ था।

जब नीतीश कुमार की सरकार बनी तो शहाबुद्दीन पर……

2005 में नीतीश कुमार के हाथ में सत्ता आई और शहाबुद्दीन पर शिकंजा कसना शुरू हो गया। शहाबुद्दीन कई मामलों में सजायाफ़्ता होने के कारण चुनाव लड़ने पर बैन लग गया। 2009 का लोकसभा चुनाव में आरजेडी ने शहाबुद्दीन की पत्नी हीना शाहब को टिकट दिया। ओम प्रकाश यादव जिस तरह से सक्रिय थे उन्हें पूरी उम्मीद थी कि जदयू इस बार भी टिकट देंगे। प्रभुनाथ सिंह की तरफ से भी ओम प्रकाश यादव की पैरवी की गई। लेकिन जदयू ने पटेल को टिकट दे दिया, इसे प्रभुनाथ सिंह बहुत नाराज हुए। इसके बाद चर्चा या भी रही, प्रभुनाथ सिंह ने ओमप्रकाश यादव को निर्दलीय चुनाव लड़ने का हौसला दिया।

इस चुनाव में प्रभुनाथ सिंह ने ओम प्रकाश यादव के लिए पूरा जोर लगाया और आखिकार यह अभेद किला तोड़ने में कामयाब रहे। ओम प्रकाश यादव ने हिना साहब को लगभग 64000 वोटो से हराया। प्रभुनाथ सिंह के खेमे में जश्न का माहौल था।

शहाबुद्दीन के घर में जब रेड मारी तो क्या क्या मिला……..

शहाबुद्दीन 2004 में जब फिर से सांसद बने तो सिवान के डीएम सीके के अनिल ने शहाबुद्दीन पर क्राइम कंट्रोल एक्ट लगाते हुए उन्हें सिवान में एंट्री से बैन कर दिया। शहाबुद्दीन ने डीएम के खिलाफ यह मामला संसद में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के सामने उठाया और कहा कि जिलाधिकारी का यह आदेश सांसद के विशेषाधिकार पर हमला है। उसके बाद डीएम ने शहाबुद्दीन पर थोड़ा और शिकंजा कसा। शहाबुद्दीन पर चुनावी हलफनामे में गलत जानकारी देने का एक मुकदमा दर्ज हुआ। शहाबुद्दीन ने 2004 लोकसभा चुनाव में जानकारी दी थी कि उनके खिलाफ 19 मुकदमे पेंडिंग हैं लेकिन उस वक्त तक उन पर 34 मुकदमे लंबित थे।

इस FIR के बस दो दिनों बाद ही शहाबुद्दीन के प्रतापपुर स्थित घर पर पुलिस की रेड पड़ी। यह रेड सिवान के तत्कालीन एसपी रतन संजय के नेतृत्व में की गई थी। पुलिस टीम ने 23 अगस्त 2005 को सुबह 4 बजे से लेकर देर रात तक शहाबुद्दीन के घर पर रेड डाली। इस दौरान उनके घर से 250 राउंड गोलियां, चार सेमी ऑटोमेटिक राइफल, ऑटोमेटिक रिवॉल्वर और 315 बोर का एक और रिवाल्वर जब्त किया गया था। इसके अलावा हिरन और बाघ की खाल भी इस रेड के दौरान पाया गया था। इससे पहले शहाबुद्दीन पर आरोप था कि 2003 में राजद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान वाल्मीकि नगर टाइगर रिजर्व में शिकार किया था।

2008 में वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के डीएफओ ने इस आरोप में शहाबुद्दीन के खिलाफ चार्जशीट भी दायर की थी। इन हथियारों के पाए जाने के बाद शहाबुद्दीन ने जिला प्रशासन पर बदले की भावना से की गई करवाई का आरोप लगाया। तब शहाबुद्दीन ने कहा था कि प्रशासन ने सबसे पहले कहा कि वहां कुछ भी नहीं मिला। और 2 दिन बाद फिर कह रहे है कि उन्हें मेरे घर से अवैध हथियार मिले हैं। मगर यही शहाबुद्दीन आगे चलकर इस मामले में यह सफाई देते हैं कि रिवाल्वर, गोलियां और राइफल का रखने का लाइसेंस उन्हें सरकार की तरफ से मिला है। नाइट विजन गॉगल्स का भी कस्टम क्लियरेंस है। तो इसे अवैध क्यों बताया जा रहा है। और आर्म्स एक्ट का एक और मुकदमा दर्ज हुआ। 

मोहम्मद शहाबुद्दीन मृत्यु की जगह और तारीख

2021 में कोविड के दौरान उनक स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। 20 अप्रैल को पॉजिटिव टेस्ट होने के 3 दिन बाद उन्हें वेंटीलेटर सपोर्ट पर रखा गया। मगर स्थिति में कोई सुधार नहीं हो पाई। 1 मई 2021 को दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय हॉस्पिटल में शहाबुद्दीन का 53 वर्ष की उम्र में इंतकाल हो गया। शहाबुद्दीन की मौत के बाद परिवार ने जेल ऑथोरिटी पर उनकी हत्या के लिए कॉस्परेसी का आरोप लगाया। बिगड़ते स्वास्थ्य के बाद शहाबुद्दीन के परिवार ने बेहतर मेडिकल केयर की मांग के लिए दिल्ली हाइकोर्ट की रिक्वेस्ट किया था। मौत के बाद परिवार का आरोप था कि वह दिल्ली के सबसे अच्छे अस्पतालों में उनका इलाज करवाना चाहते थे। लेकिन जेल अथॉरिटी की तरफ से उन्हें इजाजत नहीं मिली। 

शहाबुद्दीन की बेटी तसनीम शहाबुद्दीन ने तिहाड़ जेल के डिजी पर शहाबुद्दीन की हत्या का आरोप लगाया। बिहार की राजनीति में भी कमोबेश ऐसा ही माहौल था। राजद और महागठबंधन के सहयोगी दल के नेताओं ने भी इसे हत्या बताते हुए हाइ लेवल जांच की मांग की थी।

Anshuman Choudhary

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