ब्रिटिश काल में झारखंड के राजस्व प्रशासन की व्यवस्था कैसी थी विवेचना करें।
आज इस आर्टिकल में हम ब्रिटिश काल में झारखंड के राजस्व प्रशासन की व्यवस्था के बारे में जानेंगे। ब्रिटिश काल में झारखंड राज्य की आय की कैसी व्यवस्था थी उसे किस तरह से मैनेजमेंट किया जाता था। तो आज हम सब ब्रिटिश काल के दौरान झारखंड राज्य में आय की व्यवस्था के बारे में जानेंगे आखिर किस तरह से मैंनेज किया जाता था। जनजातियों के छोटानागपुर में आगमन के बाद सबसे पहले यहां के जंगल झाड़ साफ करने शुरु किए और वहां के भूमि को खेती करने योग्य बनाया। जिस कारण यहां के जनजातियों का कहना था कि जिन्होंने भूमि को उपजाऊ योग्य बनाया है उन पर मालिकाना हक और अधिकार उनके वंशजों का ही है।
गांव की संपूर्ण भूमि पर समूचे गांव का सम्मिलित अधिकार था, यद्यपि प्रारंभ में भूमि को कृषि लायक बनाने वालों को विशेषाधिकार प्राप्त हुआ करता था। समय-समय पर गांव का मुखिया गैर आवाज भूमि को गांव के किसानों के बीच बांटता रहता था। भूमि के किसी भी दान अथवा हस्तांतरण को संपूर्ण समुदाय की सहमति आवश्यक होती थी भूमिपति भूमिहीन लोगों को कृषक मजदूर के रुप में रख लेते थे।
इस प्रकार मुंडा, पाहन तथा महतो का गांव जीवन पर पूर्ण नियंत्रण होता था, मानकी कई गांवों पर नियंत्रण रखता था। इस प्रकार भूमि व्यवस्था, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक जीवन के बीच गहरा रिश्ता था। मूल रूप से भूमि को आबाद करने वाले भुईहर अथवा खूंटकट्टीदार कहलाते थे। गांव के मूल संस्थापक परिवार के वास्तविक स्तंभ होते थे, बाद में कृषि के सहभोगी तत्व के रूप में लोहार, बढई, बुनकर, ग्वालो आदि को जमीन देकर गांव में बसाया गया। लेकिन गांव की जमीन पर इन लोगों का अधिकार अस्थाई नहीं था। याने की हमेशा के लिए उस पर उसका अधिकार नहीं था और वह केवल उसकी उपज का उपभोग मात्र ही कर सकते थे।
ब्रिटिश काल में झारखंड के राजस्व प्रशासन
भूमि की यह व्यवस्था प्राचीन जनजातीय राजनीतिक व्यवस्था का मूलाधार थी। मध्यकाल में सामंती शासन के कारण प्राचीन जनजातीय भूमि व्यवस्था छिन्न-भिन्न होने लगी। कृषि का विस्तार और अतिरिक्त धन की प्राप्ति के उद्देश्य से यहां के राजा लोग छोटा नागपुर के बाहर से किसानों को बुलाकर रहने के लिए बसाने लगे। 1585 ईस्वी में इस क्षेत्र में मुगल आक्रमण के बाद यहां की भूमि व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन प्रारंभ हुआ। राजाओं ने इस क्षेत्र में नए आए हिंदुओं और मुसलमानों को कर वसूल करने का काम सौंपा और उन्हें जागीरें प्रदान की गई। इस प्रकार धीरे-धीरे मुस्लिम व्यापारी हिंदू साहूकार सिख ठेकेदार राजपूत जमीदार जागीदार जनजातियों की जमीन पर हावी होने लगे।
कहीं स्वयं राजाओ ने आदिवासियों की जमीन पर अधिकार कर लिया, मुगल शासकों एवं बंगाल बिहार के सूबदारों के निरंतर दबाव के कारण रैयतों पर लगान बढ़ा दिया गया। सरकारी अधिकारी प्रजा का शोषण करने लगे, 1770 ईस्वी में अनावृष्टि के कारण छोटानागपुर में अकाल और उसके फलस्वरूप अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। चारों ओर लूटपाट चोरी चमारी और अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गए इन्हीं परिस्थितियों में छोटानागपुर में अंग्रेजों में प्रवेश किया।
मुगल काल में छोटा नागपुर के सभी राजा बिहार बंगाल एवं उड़ीसा के सूबेदारों को भू राजस्व अदा करते थे। किंतु ऐसा वे परिस्थितियों से बाध्य होकर करते थे, वे हृदय से कर चुकाना नहीं चाहते थे और स्वयं राजाओं की तरह आचरण करना चाहते थे। 1770 ईस्वी तक छोटानागपुर के राजाओं पर राजस्व की भारी रकम बकाया थी, अंग्रेज कंपनी इसे वसूल करना चाहती थी। अतः इनके विरुद्ध सैनिक कार्रवाई करते हुए 1771 से 1780 ईस्वी में कंपनी की सेना कप्तान कैमक थी। अधीनता में पलामू छोटानागपुर खास और रामगढ़ पर कब्जा कर लिया और यहां के शासकों के साथ लगान संबंधी समझौता किया। घाटशिला के जमींदारों के साथ भी ऐसा ही समझौता किया गया।
राजस्व संबंधी ये समझौते 3 वर्षों के लिए किए गए बाद में मालगुजारी बढ़ाने के लिए मिलिट्री कलेक्टर की जगह सिविल कलेक्टर शिफ्ट की बहाली की गई। रामगढ़ के राजस्व संबंधी मामलों का निष्पादन सीधा फोर्ट विलियम स्थित काउंसिल द्वारा किया जाने लगा बाद में रामगढ़ के कलेक्टर को कोलकाता में नवस्थापित कमेटी ऑफ रेवेन्यू (Committee of Revenue) के अधीन कर दिया गया। कोलकाता स्थित या बोर्ड ऑफ रेवेन्यू छोटानागपुर के राजस्व संबंधी प्रशासन की देखरेख करता था रामगढ़ का कलेक्टर अपने राजस्व संबंधी कर्तव्यों के साथ-साथ न्यायिक कार्यों का भी संपादन करने लगा।
प्रारंभ में जमीदारों एवं राजाओं से कर वसूली में कलेक्टर की सहायता के लिए कंपनी सरकार ने सजावल प्रथा को अपनाया था। इस प्रथा के अंतर्गत राजा लोग सरकार द्वारा बहाल किए सजावल को कर की वसूली में सहायता करते थे, रामगढ़ का कलेक्टर कनिंघम सजावल प्रथा से पूर्णरूपेण संतुष्ट था और इसे हर जगह लागू करना चाहता था। लेकिन इसके विरूद्ध 1800 ईस्वी के पलामू विद्रोह के कारण इस प्रथा का अंत कर दिया गया।
कंपनी के सामने छोटानागपुर की सबसे बड़ी समस्या राजस्व वसूली की थी, कंपनी की सरकार ने इस क्षेत्र में कृषि की उन्नति तथा उसे समस्याओं को सुलझाने के लिए कुछ नहीं किया। कंपनी के अफसरों ने बार-बार सरकार को सावधान किया कि छोटानागपुर में अमन-चैन स्थापित करने के लिए यहां के लोगों को भूमि संबंधी समस्या का समाधान करना अति आवश्यक है। इन समस्याओं को सुलझाने में सरकार की विफलता का प्रमुख कारण था विभिन्न सरकारी अफसरों में मतैक्य एवं आपसी सामंजस्य का अभाव।
सरकारी अफसरों में एकमत नहीं रहने के कारण ही रामगढ़ क्षेत्र के कलेक्टर ने बारी-बारी से क्रमशः 5 वर्षों, 2 वर्षों, 20 वर्षों और अंत में सालाना बंदोबस्ती के विभिन्न प्रयोग किए। छोटानागपुर में विभिन्न प्रकार के ज़ोतों के कारण भी राजस्व निर्धारण में कठिनाइयां उपस्थित होती थी। कंपनी के काल में इस क्षेत्र के लोगों को बिक्री एवं अन्य कारणों से अपनी जमीन से वंचित होना पड़ा और यह छोटानागपुर की एक बड़ी समस्या बन गई जोतो में विभिन्नता के कारण सरकार इस समस्या का हल करने में परेशान थी। छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट पास होने तक यह स्थिति बनी रही यद्यपि जमीन से वंचित किए जाने की घटना में ह्वास हुआ।
1858 ईस्वी में सिपाही विद्रोह के पश्चात सरकार का ध्यान छोटानागपुर के भू राजस्व की ओर गया और भू राजस्व में तत्काल सुधार की आवश्यकता महसूस की, परिणामस्वरूप 1867 ईस्वी में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट पास किया गया।
इस अधिनियम के अनुसार रैयती जमीन सहित सभी प्रकार के जोतो का खाता खोलने का निर्णय लिया गया। जिस जमीन पर जिसका 20 वर्ष तक लगातार कब्जा था उसके नाम पर खाता खोलने की व्यवस्था गई। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक अधिकांश खाते खुल गए, यद्यपि जमीन की माप और मालबंदी का काम 1920 ईस्वी तक जारी रहा। 1908 ईस्वी के टेनेंसी एक्ट में स्थाई रैयत को परिभाषित किया गया और इस प्रकार अनेक रैयतो को अपनी जमीन का मालिकाना हक हासिल हुआ।
जमीदारों की खास जमीन अब रैयत हो गई, बकाया लगान के लिए जमीन जब्त करने से जमीदारों को रोक दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने यथासंभव बकाया लगान की वसूली के लिए जमीन की बिक्री को रोका।
1876 ईसवी में पारित छोटानागपुर इनकंबर्ड स्टेट एक्ट के अनुसार कमिश्नर गवर्नर जनरल की अनुमति से मालगुजारी न अदा करने वाले जमीदारों की जमीदारी की देखरेख अपने हाथों में ले सकता था। छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सका, उस अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य आदिवासी रैयतो की जमीन की रक्षा करना था। किंतु आदिवासी की जमीन बिकते रहे और वह अपनी जमीन से वंचित होते रहे। यद्यपि इस अधिनियम से ऋण देने वाले साहूकारों और व्यापारियों पर दबाव पड़ा और आदिवासी जमीन की बिक्री में कमी आई।