झारखंड के क्षेत्रीय राजवंश, मुंडाओं का इतिहास क्या है?
आज हम इस आर्टिकल में झारखंड के क्षेत्रीय राजवंशों के इतिहास के बारे में पढ़ेंगे, यानि कि झारखंड में कौन कौन से राजवंश थे और कहाँ कहाँ थे। झारखंड का मुंडा राजवंश, जिसे आमतौर पर “नागवंश” या “नागवंशी राजवंश” के नाम से भी जाना जाता है, झारखंड क्षेत्र का महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शक्ति था। यह राजवंश मुख्य रूप से छोटानागपुर पठार क्षेत्र में सक्रिय था और इसकी उत्पत्ति प्राचीन काल में मानी जाती है। मुंडा समुदाय, जो इस क्षेत्र की एक प्रमुख आदिवासी जनजाति है, हालांकि “मुंडा राजवंश” शब्द का प्रयोग कभी-कभी भ्रामक हो सकता है, क्योंकि यहाँ का शासन मुख्य रूप से नागवंशी राजाओं के अधीन था, जो खुद को नाग (सर्प) के वंशज मानते थे।
क्षेत्रीय राजवंश
- झारखंड का मुंडा राजवंश
- छोटानागपुर खास का नागवंश
- पलामू का रक्सेल वंश
- सिंहभूम का सिंह वंश
झारखण्ड का मुण्डा राजवंश
झारखण्ड की जनजातियों में देखें तो मुण्डाओं ने ही सबसे पहले झारखंड राज्य निर्माण की नींव डाली थी। रिता मुण्डा/ ऋषा मुण्डा को ही सबसे पहले झारखण्ड राज्य निर्माण का श्रेय दिया जाता है। ऋषा मुण्डा ने सुतिया पाहन को मण्डाओं का शासक नियुक्त किया और इस नवस्थापित राज्य का नाम सुतिया पाहन के नाम पर सुतिया नागखण्ड पड़ा। यह राज्य अधिक दिनों तक स्थायी नहीं रह सका तथा इस राज्य का अंतिम राजा मदरा मुण्डा था।
सुतिया नागखण्ड नामक इस राज्य को सतिया पाहन ने सात गढों और 21 परगना में अलग अलग किया।
7 गढ़ का नाम (पुराना नाम) | नया नाम |
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सिंहगढ़ | सिंहभूम |
लोहागढ़ | लोहरदगा |
केसलगढ़ | केसलगढ़ |
पालुनगढ़ | पलामू |
हजारीबाग | हजारीबाग |
मानगढ़ | मानभूम |
सुरगुमगढ़ | सुरगुजा |
कोरया | खरसिंग | खुखरा |
गंगपुर | गीरगा | चंगमंगलकर |
जसपुर | तमाड़ | दोईसा |
पोड़हाट | बिरूआ | बिरना |
बेलसिंग | बेलखादर | बोनाई |
लचरा | ओमदंडा | लोहारडीह |
सोनपुर | सुरगुजा | उदयपुर |
छोटानागपुर खास नागवंश की उत्पत्ति और इतिहास
छोटानागपुर क्षेत्र का नागवंश, जिसे आमतौर पर “नागवंशी राजवंश” के नाम से जाना जाता है, झारखंड के इतिहास में एक महत्वपूर्ण शक्ति था। यह राजवंश छोटानागपुर पठार (वर्तमान झारखंड और आसपास के क्षेत्र) में शासन करता था। इसकी उत्पत्ति प्राचीन काल से मानी जाती है। नागवंशी राजवंश की स्थापना के बारे में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। एक लोकप्रिय कथा के अनुसार, इस वंश का संस्थापक फणि मुकुट राय था, जिसे नागवंशी परंपरा का पहला राजा माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि फणि मुकुट राय को मुंडा समुदाय के लोगों ने एक शिशु के रूप में पाया था। उसे अपना वारीश बनाया और आगे मुंडा समुदाय ने ही फणि मुकुट राय को राजा बनाया। यह घटना संभवतः पहली शताब्दी ईस्वी के आसपास मानी जाती है, हालाँकि ये सटीक तारीख नहीं है।
फणी मुकृट राय पुण्डरीक नाग एवं वाराणसी की ब्राह्मण कन्या पार्वती का पुत्र था। फणी मुकुट राय को नागवंश का आदि पुरूष’ भी कहा जाता है। फणी मुकुट राय का विवाह पंचेत राज्य (नागवंशी राज्य के पूर्व में स्थित) के राजघराने में हुआ था।
मुण्डा राज के बाद नागवंश द्वारा अपना राज्य स्थापित किया गया। अंतिम मुण्डा राजा मदरा मुण्डा व अन्य नेताओं की सर्वसम्मति से 64 ई. में फणि मुकुट राय को राजा बनाया गया। जिसने नागवंशी राज्य की स्थापना की तथा सुतियांबे को अपनी राजधानी बनाया। तथा वहाँ एक सूर्य मंदिर का निर्माण कराया। फणी मुकुट राय ने पंचेत के राजा की मदद से क्योंझोर राज्य (नागवंशी राज्य के दक्षिण में स्थित) को पराजित किया था। फणी मुकुट राय का राज्य 66 परगना में विभाजित किया। फणी मुकुट राय ने अपने राज्य में गैर- आदिवासियों को भी आश्रय दिया और आश्रय पाने वाले गैर-आदिवासियों में भवराय श्रीवास्तव को अपना दीवान बनाया। बाघदेव सिंह ने फणी मुकट राय की हत्या कर दी। प्रताप राय के शासनकाल में पलामू किला का निर्माण कराया गया था।
प्रताप राय ने अपनी राजधानी इस वंश की राजधानी समय-समय पर सुतियांबे, चुटिया, खुखरागढ़, नवरतनगढ़, पालकोट, और रातू जैसे स्थानों पर बदलती रही।
प्रारंभिक शासन : नागवंशी राजाओं ने छोटानागपुर के जंगली और पहाड़ी क्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की। उनकी राजधानी समय-समय पर बदलती रही, जिसमें सुतियांबे, नावाडीह, और पालकोट जैसे स्थान प्रमुख थे।
सामंती व्यवस्था : उनका शासन सामंती ढांचे पर आधारित था। स्थानीय सरदारों और जमींदारों को कर वसूलने और शासन संभालने की जिम्मेदारी दी जाती थी। बदले में, राजा उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे।
आर्थिक आधार: छोटानागपुर की प्राकृतिक संपदा, जैसे जंगल, खनिज (कोयला, लोहा), और कृषि, उनकी शक्ति का आधार थी।
नागवंश की शासन और संगठन
- नागवंशी राजाओं ने छोटानागपुर क्षेत्र में एक व्यवस्थित शासन प्रणाली स्थापित की थी।
- उनका शासन मुख्य रूप से सामंती व्यवस्था पर आधारित था, जिसमें स्थानीय सरदारों और जमींदारों को अधिकार दिए जाते थे।
- ये राजा अपने आपको “महाराजा” कहते थे और अपनी राजधानी समय-समय पर बदलती रहती थी। लेकिन नावाडीह और पालकोट जैसे स्थान उनके प्रमुख केंद्र थे।
- मुंडा समुदाय और अन्य आदिवासी समूहों के साथ इनका संबंध सहजीवी था। राजा स्थानीय जनजातियों से कर वसूलते थे, लेकिन बदले में उन्हें संरक्षण और न्याय प्रदान करते थे।
- उनकी शक्ति का आधार जंगल, खनिज संसाधन और कृषि था, जो इस क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा से संचालित होता था।
- नागवंशी राजवंश ने छोटानागपुर पठार पर प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक शासन किया।
- यह वंश अपने को नाग (सर्प) के वंशज मानता था और इसने मुंडा, संथाल, और अन्य आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर शासन किया।
नागवंशी की संस्कृति और धर्म | मुंडा का धर्म क्या है?
- नागवंशी राजाओं ने हिंदू धर्म और स्थानीय आदिवासी परंपराओं का मिश्रण अपनाया।
- वे सूर्य और नाग देवताओं की पूजा करते थे, जो उनकी नागवंशी पहचान को दर्शाता है।
- साथ ही, मुंडा, संथाल, और हो जैसे आदिवासी समुदायों की प्रकृति-पूजा और परंपराओं का सम्मान करते थे।
- इस संमिश्रण ने छोटानागपुर में एक अनूठी सांस्कृतिक पहचान बनाई।
नागवंशी भीम कर्ण का राजवंश (लगभग 1095-1184 ईस्वी)
भीम कर्ण 12वीं शताब्दी (लगभग 1095-1184 ईस्वी) में छोटानागपुर के नागवंशी राजा थे। भीम कर्ण प्रथम प्रतापी शासक था जिसने राय के स्थान पर कर्ण की उपाधि धारण की। कर्ण की उपाधि कलचुरि राजवंश की उपाधि से प्रभावित था। भीम कर्ण ने नागवंशी राजाओं की पारंपरिक उपाधि “राय” को बदलकर “कर्ण” कर दिया। यह परिवर्तन संभवतः त्रिपुरी के कलचुरि वंश के राजा लक्ष्मीकर्ण के वंशजों पर उनकी विजय या उनके साथ गठबंधन का प्रतीक था।
नागवंशी राजा भीम कर्ण को सरगुजा के हेहयवंशी रक्सेल राजा से युद्ध करना पड़ा। रक्सेल राजा ने 1200 घुड़सवारों तथा विशाल सेना के साथ नागवंशी क्षेत्र पर आक्रमण किया। भीम कर्ण ने इस आक्रमण को न केवल विफल किया, बल्कि रक्सेल के राजा को हराकर उनके क्षेत्र—बरवे और पलामू—पर कब्जा भी कर लिया। जिसे ‘बरवा की लड़ाई’ के नाम से जाना गया। ये क्षेत्र वर्तमान में लातेहार और पलामू जिलों में स्थित हैं। इस युद्ध में उन्होंने रक्सेल राजाओं को लूटा और बसु देव राय की मूर्ति भी छीन ली, जो उनकी विजय का एक प्रतीक बनी। इस लड़ाई में विजय के बाद नागवंशियों का राज्य गढवाल राज्य की सीमा तक विस्तारित हो गया।
नागवंशी राज्य की राजधानी चुटिया, बंगाल पर आक्रमण करने वाले तुर्क आक्रमणकारियों के मार्ग के अत्यंत निकट था। अत: नागवंशी राज्य पर मुस्लिम आक्रमण से बचने के लिए भीम कर्ण ने 1122 ई. में अपनी राजधानी चुटिया से खुखरागढ़ (वर्तमान राँची जिला) स्थानांतरित किया। यह स्थान रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था और उनके शासन को मजबूत करने में सहायक रहा। उन्होंने खुखरागढ़ में एक तालाब बनवाया, जिसे भीम सागर के नाम से जाना जाता है। यह उनकी प्रशासनिक और निर्माण क्षमता को दर्शाता है।
नागवंशी शिवदास कर्ण का राजवंश
शिवदास कर्ण जो एक नागवंशी शासक थे। नागवंशी राजवंश छोटानागपुर क्षेत्र (वर्तमान झारखंड) का प्रमुख राजवंश था, इस राजवंश की जानकारी मुख्यतः लोककथाओं, स्थानीय ग्रंथों और क्षेत्रीय इतिहास से प्राप्त होती है। शिवदास कर्ण 14वीं सदी के अंत और 15वीं सदी की शुरुआत (लगभग 1401 ईस्वी) में छोटानागपुर के नागवंशी शासक थे। शिवदास कर्ण का शासनकाल नागवंशी वंश के मध्यकालीन दौर में आता है, जब यह वंश अपनी क्षेत्रीय शक्ति को मजबूत कर रहा था। उनके समय में छोटानागपुर क्षेत्र में स्थानीय सरदारों और आदिवासी समुदायों के साथ गठबंधन महत्वपूर्ण था।
इस दौर में नागवंशी शासक स्थानीय विद्रोहों और पड़ोसी शक्तियों, जैसे सरगुजा के रक्सेल या अन्य छोटे राजवंशों, से निपटते थे। शिवदास कर्ण ने संभवतः अपने क्षेत्र की रक्षा और विस्तार में योगदान दिया।
हापामुनि मंदिर में योगदान: नागवंशावली और स्थानीय परंपराओं के अनुसार, शिवदास कर्ण ने गुमला जिले के घाघरा के हापामुनि मंदिर में सियानाथ देव के हाथों 1401 ई. में विष्णु जी की मूर्ति की स्थापना की। एक संस्कृत शिलालेख के आधार पर, यह कार्य विक्रम संवत 1458 (1401 ईस्वी) में किया गया था। यह उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को दर्शाता है।
नागवंशी प्रताप कर्ण का राजवंश (1451-1469 ई.)
प्रताप कर्ण का शासनकाल लगभग 15वीं से 16वीं शताब्दी के बीच माना जाता है। वे रानी खुखरा (वर्तमान लोहरदगा के पास) में रहते थे, जो उस समय की राजधानी थी। प्रताप कर्ण ने अपनी राजधानी को खुखरा से हटाकर डोरा स्थानांतरित किया। डोरा अब गुमला जिले में स्थित है, यह निर्णय रणनीतिक कारणों और राजनीतिक स्थिरता हेतु लिया गया था। उन्होंने अपनी सेना को संगठित किया और पड़ोसी राज्यों से संबंध बनाए। अपने राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए उन्होंने प्रभावी प्रशासन चलाया। प्रताप कर्ण शैव धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने देवड़ी मंदिर (खूंटी), नागरगढ़ जैसे धार्मिक स्थलों का निर्माण करवाया। प्रताप कर्ण का संबंध नागवंशी राजाओं की उसी परंपरा से थी जिसमें पहले फनीनाथ, मंगलदेव, और बाद में दुर्जन शाल, राम शाह, राजा मदरा मुंडा, ललित नारायण जैसे शासक हुए।
सल्तनत काल के लोदी वंश के समकालीन नागवंशी राजा प्रताप कर्ण, छत्र कर्ण एवं विराट कर्ण थे। प्रताप कर्ण के समय नागवंशी राज्य घटवार राजाओं के विद्रोह से त्रस्त था। इस समय तमाड़ के राजा ने नागवंशी राज्य की राजधानी खुखरागढ़ की घेराबंदी करके प्रताप कर्ण को किले में बंदी बना दिया। प्रताप कर्ण को इस बंदी से मुक्ति पाने के लिए खैरागढ़ के खरवार राजा बाघदेव की सहायता लेनी पड़ी। बाघदेव ने तमाड़ के राजा को पराजित करके इसे कर्णपुरा का क्षेत्र पुरस्कार में मिला।
नागवंशी छत्र कर्ण का राजवंश (1469-1496 ई.)
छत्र कर्ण नागवंशी राजवंश के एक प्रतापी शासक थे, जो लोदी वंश (सल्तनत काल) के समकालीन थे। जिनके शासनकाल में धार्मिक और सांस्कृतिक का विकास हुआ, विशेष रूप से वैष्णव मत का प्रसार। उनका काल क्षेत्रीय विद्रोहों और बाहरी दबावों से भरा था, फिर भी नागवंशी शासकों ने अपनी सत्ता और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखा। नागवंशी राजवंश का इतिहास झारखण्ड की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को दर्शाता है, जो 1952 में जमींदारी प्रथा के अंत तक प्रभावी रहा।
1498 ई. में संध्या के राजा ने नागवंशी राज्य पर आक्रमण कर कुछ हिस्सों पर अपना कब्जा कर लिया था। जिसे नागवंशी राजा ने खैरागढ के राजा लक्ष्मीनिधि कर्ण की मदद से आजाद कराया। शरणनाथ शाह के समय जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ था।
धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान:
- छत्र कर्ण के काल में कोराम्बे में भगवान विष्णु की मूर्ति की स्थापना कारवाई। इस मूर्ति से प्रभावित होकर बंगाल के प्रसिद्ध वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु 16वीं शताब्दी की शुरुआत में पंचपरगना क्षेत्र में रुके थे। चैतन्य महाप्रभु ने अपने ग्रंथ चैतन्य चरितामृत में झारखण्ड के भौगोलिक और सांस्कृतिक स्वरूप का वर्णन किया।
- चैतन्य चरितामृत के अनुसार चैतन्य महाप्रभु ने संथाल परगना के कई गांवों में ठाकुरबाड़ी की स्थापना की। चेतन्य महाप्रभु ने झारखण्ड क्षेत्र में वैष्णव मत का प्रचार-प्रसार भी किया।
- चैतन्य महाप्रभु ने इस क्षेत्र में वैष्णव मत का प्रचार-प्रसार किया, जिसने नागवंशी शासन के दौरान स्थानीय संस्कृति को प्रभावित किया।
समकालीन शासक:
- छत्र कर्ण के साथ-साथ प्रताप कर्ण और विराट कर्ण भी लोदी वंश के समकालीन नागवंशी शासक थे। यह काल नागवंशी राज्य के लिए चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि इस दौरान क्षेत्रीय विद्रोह और बाहरी आक्रमणों का सामना करना पड़ा।
- प्रताप कर्ण के शासनकाल में तमाड़ के राजा ने खुखरागढ़ की घेराबंदी कर उन्हें बंदी बनाया था, जिससे छत्र कर्ण के समय में भी क्षेत्रीय अस्थिरता की स्थिति रही होगी।
राजनीतिक स्थिति
- छत्र कर्ण के समय नागवंशी राज्य को स्थानीय शासकों, जैसे घटवार राजाओं, के विद्रोह का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद, नागवंशी शासकों ने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए खैरागढ़ के खरवार राजा बाघदेव जैसे सहयोगियों की मदद ली।
- इस काल में नागवंशी शासकों ने मुगल साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव का भी सामना किया, लेकिन वे अपनी स्वायत्तता को बनाए रखने में काफी हद तक सफल रहे।
नागवंशी राम शाह राजवंश ( 1690-1715 ई.)
राम शाह नागवंशी राजवंश जिनका शासनकाल 17वीं शताब्दी में था। उनके शासनकाल ने नागवंशी राजवंश के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। राम शाह का शासनकाल 1640 से 1662 के बीच माना जाता है। वह नागवंशी राजवंश के 35वें राजा थे। उनके समय में नागवंशी राज्य अपनी शक्ति और प्रभाव के चरम पर था। राम शाह मुगल शासक बहादुर शाह प्रथम के समकालीन था।
राजधानी और प्रशासन
- राम शाह ने अपनी राजधानी खुखरागढ़ में स्थापित की थी, जो उस समय नागवंशी शासकों का प्रमुख केंद्र था। खुखरागढ़ एक रणनीतिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान था।
- उनके शासनकाल में प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया गया। उन्होंने स्थानीय आदिवासी समुदायों, जैसे मुण्डा और उरांव के साथ सहयोग बनाए रखा, जिससे उनकी सत्ता मजबूत हुई।
मुगल संबंध
- राम शाह का शासनकाल मुगल साम्राज्य के विस्तार के दौर में था। नागवंशी शासक मुगलों के अधीन जागीरदार थे, लेकिन उन्होंने अपनी स्वायत्तता को बनाए रखने की कोशिश की।
- राम शाह ने मुगल सम्राट शाहजहाँ के शासनकाल में अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए कूटनीतिक संबंध बनाए। उन्होंने मुगलों को कर (मालगुजारी) देने के बदले अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखा।
सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
- राम शाह के समय में नागवंशी राज्य में हिंदू धर्म और स्थानीय आदिवासी परंपराओं का समन्वय देखा गया। उनके शासनकाल में मंदिरों और धार्मिक स्थलों का निर्माण हुआ।
- वैष्णव और शैव मतों का प्रभाव उनके शासनकाल में बढ़ा, जिसने क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान को समृद्ध किया।
क्षेत्रीय विस्तार और संघर्ष:
- राम शाह ने अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए पड़ोसी शासकों और विद्रोहियों के खिलाफ युद्ध लड़े। खैरागढ़ के खरवार राजाओं और अन्य स्थानीय शक्तियों के साथ उनके संबंध जटिल थे।
- उनके शासनकाल में तमाड़ और पलामू के चेरो शासकों के साथ भी कुछ संघर्ष हुए, लेकिन राम शाह ने अपने राज्य की अखंडता को बनाए रखा।
यदुनाथ शाह राजवंश (1715-24 ई.)
यदुनाथ शाह झारखंड के नागवंशी राजवंश का एक महत्वपूर्ण शासक थे, जो छोटानागपुर क्षेत्र (वर्तमान झारखंड) में शासन करते थे। हालांकि “यदुनाथ शाह राजवंश” के रूप में कोई अलग राजवंश नहीं था, बल्कि यदुनाथ शाह नागवंशी वंश के एक प्रमुख शासक थे। यह राम शाह के बाद नागवंशी शासक बना। नागवशी शासक यदुनाथ शाह फरूखशियर के समकालीन थे। यदुनाथ शाह का शासन 18वीं शताब्दी के मध्य में था। वे नागवंशी वंश के 47वें राजा थे और 1724 से 1740 तक शासक रहे। 1717 ई. में बिहार के मुगल सूबेदार सरबुलंद खाँ ने यदुनाथ शाह पर आक्रमण कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यहुनाथ शाह ने 1 लाख रूपये मालगुजारी देना स्वीकार किया। सरबुलंद खॉ के आक्रमण के पश्चात अपने राज्य को सुरक्षित रखने के लिए यदुनाथ शाह ने अपनी राजधानी दोइसा से पालकोट स्थानांतरित कर दी। 1719-22 ई. तक टोरी परगना पर पलामू के चेरो राजा रंजीत राय का कब्जा रहा।
मुगल के साथ संबंध: यदुनाथ शाह के समय में छोटानागपुर क्षेत्र मुगल साम्राज्य के अधीन था। उन्होंने मुगलों को कर देने की नीति अपनाई, जिससे क्षेत्र में स्थिरता बनी रही।
सांस्कृतिक विकास: उनके शासनकाल में स्थानीय मंदिरों और धार्मिक स्थलों का विकास हुआ। वे हिंदू परंपराओं के संरक्षक थे और स्थानीय जनजातियों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखते थे।
प्रशासन: यदुनाथ शाह ने छोटानागपुर को एक संगठित प्रशासनिक इकाई के रूप में मजबूत किया। उनके समय में स्थानीय जमींदारों और आदिवासी नेताओं के साथ सहयोग पर जोर दिया गया।
शिवनाथ शाह का राजवंश ( 1724-33 ई.)
शिवनाथ शाह झारखंड के नागवंशी राजवंश के एक प्रमुख शासक थे, जो छोटानागपुर पठार क्षेत्र (वर्तमान झारखंड) में शासन करते थे। शिवनाथ शाह यदुनाथ शाह का उत्तराधिकारी था। शिवनाथ शाह के समय में छोटानागपुर मुगल साम्राज्य के प्रभाव क्षेत्र में था। 1730 में बिहार के मुगल सूबेदार फखरुद्दौला ने छोटानागपुर पर आक्रमण किया। इस दौरान शिवनाथ शाह ने प्रतिरोध किया, लेकिन अंततः समझौता करना पड़ा और 12,000 रुपये की मालगुजारी देने पर सहमत हुए। यह समझौता मुगलों के साथ नागवंशी शासकों की रणनीति को दर्शाता है, जिसमें उन्होंने औपचारिक रूप से कर स्वीकार किया। लेकिन अपनी आंतरिक स्वायत्तता को बनाए रखा। शिवनाथ शाह का शासनकाल 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में था, लगभग 1724 से 1733 तक। वे यदुनाथ शाह के पुत्र और उत्तराधिकारी थे।
शिवनाथ शाह ने अपने पिता यदुनाथ शाह की नीतियों को आगे बढ़ाया और स्थानीय प्रशासन को मजबूत किया। उन्होंने राजधानी को पालकोट में बनाए रखा, जिसे यदुनाथ शाह ने नवरतनगढ़ से स्थानांतरित किया था। उनके शासनकाल में छोटानागपुर की सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना को संरक्षित करने पर ध्यान दिया। शिवनाथ शाह के बाद उनके उत्तराधिकारी मणिनाथ शाह (1748-1762) ने शासन संभाला, जिन्होंने क्षेत्रीय जागीरों (जैसे बुंडू, सिल्ली, और तमाड़) पर नागवंशी प्रभुत्व को और मजबूत किया। और मणिनाथ शाह ने सिल्ली, बुंड्, तमाड़, बरवा क्षत्रों के स्थानीय जमींदारों का भी दमन किया।
शिवनाथ शाह की विरासत
- शिवनाथ शाह का शासनकाल छोटानागपुर के लिए एक महत्वपूर्ण दौर था, क्योंकि यह मुगल शक्ति के चरम और ब्रिटिश प्रभाव के उदय के बीच का समय था।
- नागवंशी वंश ने अपनी स्वायत्तता को लंबे समय तक बनाए रखा, जो शिवनाथ शाह जैसे शासकों की कूटनीतिक नीतियों का परिणाम था।
उदयनाथ शाह (1733-40 ई.)
उदयनाथ शाह का शासनकाल 17वीं शताब्दी के अंत और 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में था, लगभग 1682 से 1692 तक। वे नागवंशी वंश के 45वें शासक थे। यह शिवनाथ शाह का उत्तराधिकारी था। उदयनाथ शाह के समय में छोटानागपुर मुगल साम्राज्य के प्रभाव में था। इस समय बिहार का मुगल सूबेदार अलीवर्दी खाँ था। टेकारी के जमींदार सुंदर सिंह तथा रामगढ़ के शासक विष्णु सिंह से अलीवर्दी खाँ वार्षिक मालगुजारी वसूलता था।मुगल सम्राट औरंगजेब के शासनकाल में छोटानागपुर को औपचारिक रूप से मुगल अधीनता स्वीकार करनी पड़ी थी। उदयनाथ शाह ने मुगलों के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए रखे और कर (मालगुजारी) देने की नीति अपनाई, जिससे उनकी स्वायत्तता बनी रही।
प्रशासन और योगदान:
- उदयनाथ शाह ने छोटानागपुर में स्थानीय प्रशासन को मजबूत किया और आदिवासी समुदायों के साथ सहयोग को बढ़ावा दिया।
- उनके शासनकाल में रांची और आसपास के क्षेत्रों में सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला। कुछ स्थानीय मंदिरों और परंपराओं का विकास इस काल से जोड़ा जाता है।
उत्तराधिकार: उदयनाथ शाह के बाद उनके पुत्र रघुनाथ शाह (1692-1716) ने शासन संभाला। रघुनाथ शाह के समय में भी मुगल प्रभाव बना रहा, लेकिन नागवंशी शासकों ने अपनी स्वतंत्रता को यथासंभव बनाए रखा।
उदयनाथ शाह की विरासत
- उदयनाथ शाह का शासनकाल छोटानागपुर के लिए एक स्थिर दौर था, जिसमें मुगल शक्ति के साथ संतुलन बनाए रखा।
- नागवंशी वंश ने छोटानागपुर को ब्रिटिश काल तक एक स्वतंत्र इकाई के रूप में संरक्षित किया। उदयनाथ शाह जैसे शासकों की कूटनीति ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
श्यामसुंदर शाह का राजवंश ( 1740-45 ई.)
श्यामसुंदर शाह उदयनाथ शाह का उत्तराधिकारी था। श्यामसंदर शाह के शासनकाल के समय बंगाल पर आक्रमण करने के लिए मराठों ने झारखण्ड रास्ते का कई दफा इस्तेमाल किया। 1742 ई में भास्कर राव पंडित ने झारखण्ड से होकर बंगाल पर आक्रमण किया था, लेकिन बंगाल के तत्कालीन सूबेदार अलीवर्दी खां ने खदेड़ कर भगा दिया। 1743 ई. में मराठा रघुजी भोंसले ने भी बंगाल पर आकमण किया था, जिसकी शिकायत अलीवरदी खां ने मराठा पेशवा बालाजी राव से की। इस शिकायत पर पेशवा बालाजी राव राजमहल के वामनागँव होते हुए बंगाल पहुंचा। जब ये खबर मिली तो रघुजी भोंसले मानभूम (धनबाद) होकर वापस अपने राज्य लौट गया। मराठा के बार-बार बंगाल पर आक्रमण के लिए झारखण्ड का प्रयोग परिणामस्वरूप झारखण्ड से मुगलों का प्रभाव खतम हो गया लेकिन मराठों ने यहाँ अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।
31 अगस्त, 1743 को पेशवा बालाजी राव व रघुजी भोसले के बीच हुए एक समझौते के मुताबिक झारखण्ड क्षेत्र पर रघुजी भोंसले का प्रभाव स्थापित हुआ। 1745 ई. में रघुजी भोंसेले संथाल परगना से होकर बंगाल में प्रवेश किया। कालांतर में मराठों ने छोटानागपुर खास, पलामू, मानभूम आदि क्षेत्रों पर बहुत ज्यादा शोषण किया।
झारखण्ड के नागवंशी शासक से संबंधित
ठाकुर ऐनीनाथ शाहदेव बड़कागढ़ के ठाकुर महाराज रामशाह के चौथे पुत्र थे। इन्होनें अपनी राजधानी डोयसागढ़ से स्वणरेखा नदी के नजदीक सतरंजी में स्थापित की थी। नागवंशी शासक ऐनीनाथ शाहदेव ने 1691 ई. में रांची में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया। हटिया बाजार को ठाकुर ऐनीनाथ शाहदेव ने ही बसाया था। ठाकुर ऐनीनाथ शाह की पाँच पत्नियाँ और 21 पुत्र थे जिसकी जानकारी नागवंशावली में भी है।
नागवंशी राज्य की राजधानियाँ
नागवंशी राजा अपने राज्य को बनाये रखने के लिए अपनी राजधानियाँ समय – समय पर बदल रहते थे। नाग वंश की प्रथम राजधानी सुतियाम्बे और अंतिम राजधानी रातूगढ़ थी।
नाग वंश की राजधानियाँ तथा उसके संस्थापक
राजधानी | संस्थापक |
---|---|
सुतियाम्बे | फणी मुकुट राय |
खुखरा | भीम कर्ण |
चुटिया | प्रताप राय |
दोइसा / डोइसा | दुर्जन शाह |
पालकोट | यदुनाथ शाह |
पालकोट भौरो | जगन्नाथ शाह |
रातूगढ़ | उदय नाथ शाह |
इसके बाद हम पलामू के रक्सेल वंश के बारे में जानेंगे।