आज हम इस आर्टिकल में झारखंड के क्षेत्रीय राजवंशों के इतिहास के बारे में पढ़ेंगे, यानि कि झारखंड में कौन कौन से राजवंश थे और कहाँ थे।
क्षेत्रीय राजवंश
झारखंड का मुंडा राजवंश
छोटानागपुर खास का नागवंश
पलामू का रक्सेल वंश
सिंहभूम का सिंह वंश
झारखण्ड का मुण्डा राजवंश
झारखण्ड की जनजातियों में मुण्डाओं ने ही सर्वप्रथम राज्य निर्माण की प्रक्रिया प्रारभ की थी। रिता मुण्डा/ ऋषा मुण्डा को ही सर्वप्रथम झारखण्ड में राज्य निर्माण की प्रक्रिया शुरू करने का श्रेय मिला है।
ऋषा मुण्डा ने सुतिया पाहन को मण्डाओं का शासक नियुक्त किया और इस नवस्थापित राज्य का नाम सुतिया पाहन के नाम पर सुतिया नागखण्ड पड़ा।
सुतिया नागखण्ड नामक इस राज्य को सतिया पाहन ने सात गढों और 21 परगना में विभक्त किया गया।
सात गढ़ों व 21 परगना के नाम इस प्रकार हैं:–
7 गढ़ का नाम (पुराना नाम)
नया नाम
लोहागढ़
लोहरदगा
पालुनगढ़
पलामू
हजारीबाग
हजारीबाग
सिंहगढ़
सिंहभूम
मानगढ़
मानभूम
सुरगुमगढ़
सुरगुजा
केसलगढ़
केसलगढ़
ओमदंडा
दोईसा
खुखरा
सुरगुजा
जसपुर
गंगपुर
गीरगा
बिरूआ
लचरा
बिरना
सोनपुर
बेलखादर
बेलसिंग
तमाड
लोहारडीह
खरसिंग
उदयपुर
बोनाई
कोरया
पोड़हाट
चंगमंगलकर
यह राज्य अधिक दिनों तक स्थायी नहीं रह सका तथा इस राज्य का अतिम राजा मदरा मुण्डा था।
छोटानागपुर खास का नाग वंश
फणी मुकृट राय
मुण्डा राज के बाद नाग वंश द्वारा अपना राज्य स्थापित किया गया।
जे. रीड के अनुसार 10वीं सदी ई. में नागवशी राज्य की स्थापना हुई थी।
अंतिम मुण्डा राजा मदरा मुण्डा व अन्य नेताओं की सर्वसम्मति से 64 ई. में फणी मकट राय को राजा चुनाक् गया जिसने नागवंशी राज्य की स्थापना की थी तथा सुतियांबे को अपनी राजधानी बनाया।
फणी मुकृट राय पुण्डरीक नाग एवं वाराणसी की ब्राह्मण कन्या पार्वती का पुत्र था।
फणी मुकुट राय को नाग वंश का आदि पुरूष’ भी कहा जाता है।
फणी मुकुट राय का विवाह पंचेत राज्य (नागवंशी राज्य के पूर्व में स्थित) के राजघराने में हुआ था।
फणी मुकुट राय ने पंचेत के राजा की मदद से क्योंझोर राज्य (नागवंशी राज्य के दक्षिण में स्थित) को पराजित किया था।
फणी मुकुट राय का राज्य 66 परगना में विभाजित था।
मुकुट राय ने अपनी राजधानी सुतियाम्बे को बनाया तथा वहाँ एक सूर्य मंदिर का निर्माण कराया।
फणी मुकुट राय ने अपने राज्य में गैर- आदिवासियों को भी आश्रय दिया और आश्रय पाने वाले गैर-आदिवासियों में भवराय श्रीवास्तव को अपना दीवान बनाया।
बाघदेव सिंह ने फणी मुकट राय की हत्या की थी।
प्रताप राय के शासनकाल में पलामू किला का निर्माण कराया गया था।
प्रताप राय ने अपनी राजधानी सुतियाम्बे से चुटिया स्थानांतरित की तथा काशी तक के लोगों को चुटिया में बसाया।
भीम कर्ण (1095-1184 ई.)
भीम कणे प्रथम प्रतापी शासक था जिसने राय के स्थान पर कर्ण की उपाधि धारण की। कर्ण की उपाधि
कल्चरि राजवंश की उपाधि से प्रभावित थी।
भीम कर्ण के काल में सरगुजा के रक्सेल राजा ने 12.000 घुडसवारों तथा विशाल पैदल सेना के साथ नागवंशी
राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसे ‘बरवा की लड़ाई’ के नाम से जाना जाता है।
भीम कर्ण ने सरगुजा के हेहयवंशी रक्सेल राजा को बरवा की लड़ाई में पराजित किया। इस विजय के बाद
भोम कर्ण ने रक्सेलों को लूटा व बरवा तथा पलाम् के टोरी (वर्तमान समय में लातेहार जिले में स्थित) पर
कब्जा कर लिया। इस लड़ाई में भीम कर्ण को वासुदेव की एक मूर्ति भी प्राप्त हुयी।
इस लड़ाई में विजय के बाद नागवंशियों का राज्य गढवाल राज्य की सीमा तक विस्तारित हो गया।
भीम कर्ण ने भीम सागर का निर्माण कराया।
नागवंशी राज्य की राजधानी चुटिया, बंगाल पर आक्रमण करने वाले तुर्क आक्रमणकारियों के मार्ग के अत्यंत
निकट था। अत: नागवंशी राज्य पर मुस्लिम आक्रमण से बचने हेतु भीम कर्ण ने 1122 ई. में अपनी राजधानी
चुटिया से खुखरा स्थानांतरित कर दी।
शिवदास कर्ण
शिवदास कर्ण नागवंशी राज्य का एक प्रमुख शासक था।
शिवदास कर्ण ने हापामुनि मंदिर (घाघरा, गुमला) में सियानाथ देव के हारथों 1401 ई. में भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित करवायी।
प्रताप कण्ण (1451-1469 ई.)
सल्तनत काल के लोदी वंश के समकालीन नागवंशी राजा- प्रताप कर्ण, छत्र कर्ण एवं विराट कर्ण थे।
प्रताप कण्ण के समय नागवंशी राज्य घटवार राजाओं के विद्रोह से त्रस्त था।
इस समय तमाड़ के राजा ने नागवंशी राज्य की राजधानी खुखरागढ़ की घेराबंदी कर प्रताप कर्ण को किले में बंदी बना दिया।
प्रताप कर्ण को इस बंदी से मुक्ति पाने हेतु खैरागढ़ के खरवार राजा बाघदेव की सहायता लेनी पड़ी।
बाघदेव ने तमाड के राजा को पराजित किया जिसके परिणामस्वरूप इसे कर्णपुरा का क्षेत्र पुरस्कार के रूप में मिला
छत्र कर्णं (1469-1496 ई.,)
छत्र कर्ण लोदी वश के समकालीन एक प्रतापी नागवंशी राजा था।
छत्र कर्ण के काल में विष्णु की मूर्ति कोराम्बे में स्थापित की गयी।
इसी मूर्ति से प्रभावित होकर बंगाल के प्रख्यात वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु मथुरा जाते समय 16वीं सदी के आरंभ में पंचपरगना क्षेत्र में रूके थे। इन्होनें चैतन्य चरितामृत में झारखण्ड के भौगोलिक आकार का वर्णन किया है।
चैतन्य चरितामृत के अनुसार चैतन्य महाप्रभु ने संथाल परगना के कई गांवों में ठाकुरबाड़ी की स्थापना की थी।
चेतन्य महाप्रभु ने झारखण्ड क्षेत्र में वैष्णव मत का प्रचार-प्रसार किया।
राम शाह ( 1690-1715 ई.)
राम शाह मुगल शासक बहादुर शाह प्रथम के समकालीन था।
यदुनाथ शाह (1715-24 ई.)
यह राम शाह के बाद नागवंशी शासक बना।
नागवशी शासक यदुनाथ शाह फरूखशियर के समकालीन था।
1717 ई. में बिहार के मुगल सूबेदार सरबुलंद खाँ ने यदुनाथ शाह पर आक्रमण कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यहुनाथ शाह ने 1 लाख रूपये मालगुजारी देना स्वीकार किया।
सरबुलंद खॉ के आक्रमण के पश्चात अपने राज्य को सुरक्षित रखने हेतु यदुनाथ शाह ने अपनी राजधानी दोइसा से पालकोट स्थानांतरित कर दी।
1719-22 ई. तक टॉरी परगना पर पलामू के चेरो राजा रणजीत राय का कब्जा रहा।
शिवनाथ शाह ( 1724-33 ई.)
यह यदुनाथ शाह का उत्तराधिकारी था।
1730 ई. में बिहार के सूबेदार फखरूदौला ने छोटानागपुर पर आक्रमण किया। इस समय यहाँ शिवनाथ शाह का शासन था।
इस आक्रमण के परिणामस्वरूप शिवनाथ शाह ने फखरूद्दौला को 12,000 रूपये मालगुजारी देना स्वीकार किया।
उदयनाथ शाह (1733-40 ई.)
यह शिवनाथ शाह का उत्तराधिकारी था।
इस समय बिहार का मुगल सूबेदार अलीवर्दी खाँ था।
टेकारी के जमींदार सुंदर सिंह तथा रामगढ़ के शासक विष्णु सिंह से अलीवर्दी खाँ वार्षिक मालगुजारी वसूलता था।
नागवंशी शासक उदयनाथ शाह द्वारा रामगढ़ के शासक विष्णु सिंह के माध्यम से ही अलीवर्दी खाँ को मालगुजारी का भुगतान किया जाता था।
श्यामसुंदर शाह ( 1740-45 ई.)
यह उद्यनाथ शाह का उत्तराधिकारी था।
श्यामसंदर शाह के शासनकाल में बंगाल पर आक्रमण करने हेतु मराठों ने झारखण्ड का कई बार प्रयोग किया।
1742 ई में भास्कर राव पंडित ने झारखण्ड से होकर बंगाल पर आक्रमण किया, परन्तु बंगाल का तत्कालीन सूबेदार अलीवर्दी खां ने इसे खदेड़ दिया।
1743 ई. में मराठा रघुजी भोंसले ने भी बंगाल पर आकमण किया जिसकी शिकायत अलीवरदी खा ने मराठा पशवा बालाजी राव से की। इस शिकायत पर पेशवा बालाजी राव राजमहल के वामनागँव होते हुए बगाल पहुचा जिसकी खबर पाकर रघुजी भोंसले मानभूम (धनबाद) होकर वापस अपने राज्य लोट गया।
मराठा द्वीरा बार-बार बंगाल पर आक्रमण हेत झारखण्ड का प्रयोग करने के परिणामस्वरूप झारखण्ड से मुगला का प्रभाव समाप्त हो गया तथा मराठों का प्रभुत्व स्थापित हुआ।
31 अगस्त, 1743 को पेशवा बालाजी राव व रघुजी भोसले के बीच हुए एक समझौते के अनुसार झारखण्ड क्षेत्र पर रघुजी भोंसले का प्रभाव स्थापित हुआ।
1745 ई. में रघुजी भोंसेले संथाल परगना से होकर बंगाल में प्रविष्ट हुआ।
कालांतर में मराठों ने छोटानागपुर खास, पलामू, मानभूम आदि क्षेत्रों का जमकर शोषण किया।
नागवंशी शासक – अन्य तथ्य
1498 ई. में संध्या के राजा ने नागवंशी राज्य पर आक्रमण कर कछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया जिसे नागवंशी राजा ने खैरागढ के राजा लक्ष्मीनिधि कर्ण की सहायता से मुक्त कराया।
शरणनाथ शाह के समय जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया था।
ठाकुर ऐनीनाथ शाहदेव बड़कागढ़ के ठाक्र महाराज रामशाह के चौथे पुत्र थे। इन्होनें अपनी राजधानी डोयसागढ़ से स्वणरेखा नदी के नजदीक सतरंजी में स्थापित की थी। नागवंशी शासक ऐनीनाथ शाहदेव ने 1691 ई. में रॉँची में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया था।
हटिया बाजार को ठाकूर ऐनीनाथ शाहदेव ने ही बसाया था।
ठाकुर ऐनीनाथ शाह की पाँच पत्नियाँ तथा 21 पुत्र थे जिसका उल्लेख नागवंशावली में भी किया गया है।
नागवंशी शासक मणिनाथ शाह ने सिल्ली, बुंड्, तमाड, बरवा आदि के स्थानीय जमींदारों का दमन किया था।
नागवंशी राज्य की राजधानियाँ
नागवंशी राजा अपने राज्य को बनाये रखने के लिए अपनी राजधानियाँ समय – समय पर स्थानांतरित करते रहे।
नाग वंश की प्रथम राजधानी सुतियाम्बे तथा अंतिम राजधानी रातूगढ़
नाग वंश की राजधानियों तथा उसके संस्थापकों का क्रम निम्न प्रकार है:-
राजधानी
संस्थापक
सुतियाम्बे
फणी मुकुट राय
चुटिया
प्रताप राय
खुखरा
भीम कर्ण
दोइसा / डोइसा
दुर्जन शाह
पालकोट
यदुनाथ शाह
पालकोट भौरो
जगन्नाथ शाह
रातूगढ़
उद्यनाथ शाह
पलामू का रक्सेल वंश
प्रारंभ में पलामू रक्सेलों के प्रभाव में था, रक्सेल स्वयं को राजपूत कहते थे।
रक्सेलों का पलाम् क्षेत्र में आगमन राजपूताना क्षत्र से राहतासगढ़ होते हुए हुआ था
रक्सेलों की दो शाखाएँ थी- देवगन ( हरहरगंज व महाराजगंज से से होकर आए) एवं कुंडेलवा (चतरा व पांकी से होकर आए।)
रक्सेलों की दोनों शाखाओं ने क्रमश: देवगन एवं कुंडेलवा में किले का निर्माण कराया तथा उसे अपनी राजधानी घोषित किया।
कोरवा, गोंड, पहाड़िया, किसान और खरवार रक्सेलों के समय की महत्वपूरवर्ण जनजातियाँ थी। इनमें खरवार सर्वाधिक संख्या में थे जिनके शासक प्रताप धवल थे।
रक्सेलों ने पलामू में लम्बे समय तक शासन किया तथा 16वीं सदी में इन्हें अपदस्थ किया।
पलामू का चेरो वंश
चेरों ने रक्सेलों को पराजित कर अपने राज्य की स्थापना की।
इस वंश की स्थापना 1572 ई. में भागवत् राय ने की थी।
साहेब राय (1697 – 1716 $.)
ये बहादुरशाह, जहादार शाह तथा फरूुखसियर के समकालीन थे।
रणजीत राय (1716 – 1722 ई.)
यह साहेब राय का उत्तराधिकारी थे, इनके शासन काल में बिहार का मुगल सूबेदार सरबुलद खां पलामू आया था।
इन्होनें सरबुलंद खाँ से टोरी परगना पर कब्जा करके 1722 ई. तक अपने अधिकार क्षेत्र में रखा।
जयकृष्ण राय (1722-70 ई.)
जयकुष्ण राय ने रणजीत राय की हत्या करके पलामू राज्य पर कब्जा कर लिया।
1730 ई. में बिहार के सूबेदार फखखूह्दौला ने चेरो राजा जयकष्ण राय से 5000 रूपये सालाना कर वसूल किथा। 1733 ई. में अलीवर्दी खॉँ को बिहार का मगल सबेदार बनाया गया तथा इसने जयकृष्ण र्थ पर वारषिक कर निर्धारित किया और इसे वसूलने का अधिकार टेकारी के राजा सुंदर सिंह को दिया
1740 इ. मं बिहार के मुगल सूरबदार जैनुद्दीन खाँ ने भी जयकष्ण राय पर 5 000 रूपये वर्षिक कर का निर्थरण कियां
जनुद्दान खां के सेन्य अधिकारी हिदायत अली खाँ ने पलाम के चेरे राजा पर आक्रमण भा किया ला यह मुगलों द्वारा पलामू के चेरो राजाओं पर अंतिम आक्रमण था।
1750-65 . के दौरान पलाम में राजनीतिक स्ा का ध्रव्ीकरण हुआ और जयकृष्ण क दना ध्रुवीकरण हुआ और जयकृष्ण के दरबार में षड़यंत्र प्रारंभ हो गया। इस दौरान दक्षिणी पलाम पर चेरो राजाओं का अधिकार रहा जबकि उत्तरी पलामू पर राजपूत व मुस्लिम जमींदारों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
1765 ई. में बिहार, बंगाल और उडीसा की दीवानी ईस्ट इण्डिया कंपनी को मिल गयी तथा इन्होंने पलामू में इसका भरपूर लाभ उठाया।
सिंहभूम का सिंह वंश
हो जनजाति के अनुसार सिंहभूम का नामकरण उनके कुल देवता सिंगबोंगा के नाम पर हुआ है।
सिंह वंश के ग्रंथ ‘वंशप्रभा लेखन’ में सिंह वंश की दो शाखाओं का वर्णन मिलता है- पहली शाखा तथा दूसरी शाखा।
पहली शाखा
7वां सदों के अंत में सिंह लोग सिंहभूम के भुइयों व सरकों के संपर्क में आए एवं इस क्षेत्र पर अधिकार लिया तथा 8वीं सदी ई. के आरंभ में सिंह वंश की पहली शाखा की स्थापना हुयी।
इस शाखा का संस्थापक काशीनाथ सिंह था, इस शाखा में तेरह राजाओं ने शासन किया।
रंभ में इन राजाओं ने छोटानागपर के नागवंशियों के प्रभत्व को स्वीकार करते हुए शासन किया, परन्तु बाद में वे स्वतत्र रूप से शासन करने लगे।
पहली शाखा का शासन 13वीं सदी के प्रारंभ तक विद्यमान रहा।
दूसरी शाखा
दर्पे नारायण सिंह (1205-62 ई.) ने 1205 ई. में सिंह वंश की दूसरी शाखा की स्थापना की।
इस वश का दूसरा शासक युधिष्ठिर (1262-71 ई. ) था जिसकी मृत्यु के बाद काशीराम सिंह शासक बना।
काशीराम सिंह महिपाल सिंह का उत्तराधिकारी था। यह परवती मुगल शासक बहादुरशाह प्रथम का समकालीन था।
काशीराम सिंह ने बनाई क्षेत्र में पोरहाट नामक नयी राजधानी बनायी।
काशीराम सिंह के बाद शासक अच्युत सिंह ने शासन किया। अच्युत सिंह के शासन काल में सिंह वंश की कुलदेवी के रूप में पौरी देवी की प्राण- प्रतिष्ठा की गयी।
अच्युत सिंह के बाद क्रमश: त्रिलोचन सिंह एवं अर्जुन सिंह प्रथम इस वंश का शासक बना
अर्जुन सिंह प्रथम एक बार जब बनारस की तीर्थ यात्रा से लौट रहे थे तब रास्ते में मुसलमान उन्हें पकड़कर कटक (उरड़ीसा) ले गये। परन्तु कुछ ही समय बाद अपने 32 अनुयायियों के साथ इन्हें वापस राज्य लौटने की अनुमति दे दी गयी।
अर्जुन सिंह प्रथम के बाद जगन्नाथ सिंह द्वितीय शासक बना जो इस वंश का 13वाँ शासक था। इसके उत्पीडन से तंग आकर भूईयाँ जनजाति के लोगों ने विद्रोह कर दिया था।
जगन्नाथ सिंह द्वितीय के बाद उसका पुत्र पुरूषोत्तम सिंह सिंहभूम का शासक बना तथा इसके बाद इसका पत्र अर्जुन सिंह द्वितीय शासक बना।
अर्जुन सिंह द्वितीय
अर्जुन सिंह द्वितीय ने अपने चाचा विक्रम सिंह को 12 गाँवों वाला एक जागीर दिया था, जिसे ‘सिंहभूम पीर कहा जाता था।
विक्रम सिंह ने अन्य क्षेत्रों को इसमें मिलाकर इसका विस्तार किया तथा इसकी राजधानी सरायकेला को बनाया। बाद में यही सरायकेला राज्य बना।
विक्रम सिंह ने पटकुम राजा के शासित क्षेत्र कांडू तथा बेंकसाई पीर पर कब्जा कर अपनी उत्तरी सीमा को विस्तारित किया। इसी प्रकार उसने उत्तर-पूर्व में गम्हरिया व खरसावां पर भी कब्जा किया।
अर्जन सिंह द्वितीय का उत्तराधिकारी अमर सिंह था तथा अमर सिंह के बाद जगन्नाथ सिंह चतुर्थ सिंहवंश की गह्दी पर बैठा।
जगन्नाथ सिंह चतुर्थ
जगन्नाथ सिंह चतुर्थ के शासनकाल के समय पोरहाट क्षेत्र में हो एवं कोल जनजातियों द्वारा उपद्रव मचाया जा रहा था।
हो आदिवासियों के उपद्रव को काबू करने हतु जगन्नाथ सिंह चतुर्थ ने छोयानागपुर खास के ना दर्पनाथ सिंह की मदद ली, परंत् हो आदिवासियों ने इनकी संयुक्त सेना को भी पराजित कर दिया
हो जनजातियों के साथ-साथ कोल जनजाति के द्वारा भी इस क्षेत्र में लगातार उपद्रव किया कोल लड़ाका सिंहभूम क्षेत्र से बाहर जाकर भी लूटपाट करते थे।
जगन्नाथ सिंह चतुर्थ ने स्थिति को नियंत्रित करने हेतु अंग्रेजों की सहायता ली तथा 1767 ई. में पहली बार सिंहभूम क्षेत्र में अग्रेजो ने प्रवेश किया।
अन्य महत्वपूर्ण राजवंश
मानभूम के मान वंश
इवीं सदी के दुधपानी शिलालेख (हजारीबाग) और 14वीं सदी में कवि गंगाधर द्वारा निर्मित गोविन्दपुर शिलालेख (धनबाद) से मानभूम के मान वंश की जानकारी प्राप्त होती है।
इनका शासन हजारीबाग एवं मानभूम क्षेत्र (धनबाद) में विस्तारित था।
मानवंश के शासक अत्यंत अत्याचारी थे।
10वीं सदी में प्रसिद्ध भूमिज स्वराज्य आंदोलन इसी राजवंश के अत्याचार के कारण उभरा।
मान राजाओं ने सबर जनजाति पर (विशेषकर महिलाओं पर) घोर अत्याचार किया जिसके फलस्वरूप सबर जनजाति ने मानभूम क्षेत्र छोड़कर पंचेत क्षेत्र को अपना आश्रय बना लिया।
पंचेत मानभूम का सबसे शक्तिशाली राज्य था।
रामगढ़ राज्य
रामगढ़ राज्य की स्थापना 1368 ई. के लगभग बाघदेव सिंह ने की थी।
बाघदेव सिंह अपने बड़े भाई सिंहदेव के साथ नागवंशी शासकों के दरबार में थे, परन्तु नागवंशी शासकों से इनका मतभेद हो गया।
इस मतभेद के बाद वे बड़कागांव क्षेत्र में कर्णपुरा आ गये तथा यहाँ के स्थानीय शासक को पराजित कर इस क्षेत्र पर आधिकार कर लिया।
> धीरे-धीरे उन्होनें अन्य 21 परगना पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया तथा इनको मिलाकर रामगढ़ राज्य की स्थापना की।
बाघदेव सिंह ने अपने शासन को स्थायित्व प्रदान करने हेत् समय -समय पर अपनी राजधानी को हस्तानांतरित किया।
रामगढ़ राज्य का सर्वाधिक उत्कर्ष दलेल सिंह के शासनकाल में हुआ।
दलेल सिंह 1667 से 1724 ई. तक रामगढ़ का शासक रहा।
1718 ई. में दलेल सिंह ने छै राज्य के राजा मगर सिंह की हत्या कर उसके कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। हालाकि 1724 ई, में मगर सिंह के पुत्र रणभस्त खाँ ने दलेल सिंह को पराजित कर अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया।
दलेल सिंह के बाद विष्णु सिंह 1724 से 1763 ई. तक रामगढ़ का शासक रहा।
विष्णु सिह ने छটি राज्य पर पुन; कब्जा कर लिया तथा 1747 ई. में रामगढ़ राज्य पर भास्कर राव के नतृत्व में मराठों के आक्रमण तक यह विष्णु सिंह के अधिकार में ही रहा।
1740 ई. में बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ ने हिदायत अली खाँ को रामगढ़ से वार्षिक कर वसूलने हेतु भेजा।
हिदायत अली खाँ ने रामगढ का वार्षिक कर 12 000 रूपये तय किया।
1751-52 ई. में नरहत समया के जमींदार कामगार खाँ ने विष्ण सिंह पर आक्रमण कर विष्णु सिंह को समझौता करने हेतु विवश कर दिया।
बगाल के नवाब मीर कासिम को सूचना मिली की विष्ण सिंह नवाब विरोधी गरतिविधियों में संलिप्त है, जिसके बाद 1763 ई. में मीर कासिम द्वारा मरकत खाँ और असद्ल्लाह खाँ के नेतृत्व में भेजी गयी सेना ने विष्णु सिंह को पराजित कर उसके द्वारा अवैध रूप से हड़पे गए क्षेत्रों को उनके मूल मालिकों को सौंप दिया। इसके
बदले में मीर कासिम को मुआवजा प्राप्त हुआ।
विष्णु सिह के बाद उसका भाई मुकद सिंह रामगढ़ का शासक बना तथा उसने छै राज्य को रामगढ़ राज्य में मिला लिया।
रामगढ़ राज्य की प्रथम राजधानी सिसिया थी तथा अंिम राजधानी पदमा थी।
रामगढ़ राज्य की राजधानियों का क्रम निम्न प्रकार है:-
राजधानी
संस्थापक
सिसिया
बाघदेव सिंह
उरदा
बाघदेव सिंह
बादम
हेमंत सिंह
रामगढ़
दलेल सिंह
इचाक
तेज सिंह
पद्मा
ब्रह्मदेव नारायण सिंह
1937 ई. में रामगढ राज्य के शासक कामाख्या नारायण सिंह बने।
26 जनवरी, 1955 को बिहार राज्य भूमि सुधार अधिनियम की धारा-3 के द्वारा बाघदेव सिंह द्वारा स्थापित रामगढ़ राज्य को समाप्त कर दिया गया।
खड़गडीहा राज्य
इस राज्य की स्थापना 15वीं सदी में हंसराज देव ने की थी।
हंसराज देव ने बंदावत जाति के शासक को पराजित कर हजारीबाग पर अपना प्रभाव स्थापित किया।
इस राज्य का विस्तार वर्तमान गिरिडीह जिला क्षेत्र तक था।
हंसराज देव मूलत: दक्षिण भारत का रहने वाला था तथा उसने उत्तर भारत के ब्राह्मणों से वैवाहिक संबंध स्थापित किया।
खड़गडीहा राज्य के अन्य राजा शिवनाथ सिंह, मोद नारायण, गिरिवर नारायण देव आदि थे।
ढालभूम का ढाल वंश
ढालभूम क्षेत्र का विस्तार सिंहभूम में था।
ढाल वंश के शासनकाल में नरबलि प्रथा का प्रचलन था।
पंचेत राज्य
पंचेत राज्य मानभूम सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था।
इस राज्य का राजचिह्न कपिला गाय का पुंछ या चँवर था, इसी कारण इस राज्य के राजाओं को गोमुखी राजा कहा गया।
विभिन्न काल से संबंधित इारखण्ड के कुछ प्रमुख स्मारक/स्थान