झारखंड में जनजातीय भूमि हस्तांतरण की समस्या | झारखंड भूमि हस्तांतरण की समस्या | problem of tribal land alienation in Jharkhand

झारखंड भूमि हस्तांतरण की समस्या क्यों हो रही थी?

आज आप इस आर्टिकल में जानेंगे झारखंड में राजतन्त्र के दौरान अलग अलग जातियों के लोगों की भूमि /जमीन का अधिग्रहण के बारे में (झारखंड भूमि हस्तांतरण की समस्या) एक समय में झारखंड के जनजातीय लोगों की जमीनें जोर ज़बरदस्ती से छिनी जा रही थी। आज उसी के बारे में पूरे विस्तार से जानेंगे कौन वो लोग थे इन सब लोगों की जमीनों को हड़प रह थे।

झारखंड राज्य में राजतंत्र की स्थापना होने के बाद ही जनजातीय भू हस्तांतरण की प्रक्रिया तेजी से शुरू हो गई थी। राजतंत्र के स्थापना के शुरुआत में महाराजाओं तथा मुंडाओं के बीच मित्रता जैसी वाली संबंध थे। उस वक़्त के महाराजा मुंडा जातियों की हिफाजत किया करते थे और तो और मुंडा को दुश्मनों से हिफाजत करने के बदले महाराजाओं को मुंडा आदि जाति के लोग अपने इच्छा से सिक्युरिटी देने के बदले में कुछ पैसे दिया करते थे।

किंतु ये हिफाजत करने वाला धंधा बहुत दिनों तक नहीं चली, लेकिन धीरे – धीरे महाराजाओं की आवश्यकताएं बढ़ती गई तथा सबसे पहले महाराजाओं ने कुछ जनजातीय गांव को अपने अधीन लेना शुरू किया तथा उन गांव को अपने भाइयों तथा अन्य अपने सगे संबंधियों को गांव का विकास करने के लक्ष्य से दे दिया।

बाद में कुछ समय पाश्चात आगे चलकर राजा और अधिक बड़ा बनने की इच्छा से अपने राज्य के पड़ोसी क्षेत्र के साहसी लोगों को दिखावा कर दरबार से घेरना शुरू किया। राजा के अनुदानग्राहियों को राउतिया, ब्राह्मण, मुसलमान तथा बाद में सिक्खों की सेवाओं तथा माल देने के बदले में अनेक गांवों दे दिए गए। मुगलकाल के प्रारंभ में जागीर के रूप में बाहरी लोगों को गांव देने की प्रथा से भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया को और अधिक बल मिला। भूमि के तलबगार/भूखे बराईक, राउतिया, पांडेय, वितियास, ओहदार, जमादार, तथा अन्य लोग झारखण्ड के जनजातीय क्षेत्र में राजा द्वारा दी गई जमीन के माध्यम से प्रवेश किया।

इन लोगों के झारखंड में प्रवेश करने के कारण मुंडा के स्वयं शासनाधिकार प्राप्त समुदाय का विनाश होने का घंटा बजना शुरू हो गया था। इन घुसपैठियों के आगमन के पहले छोटानागपुर में उरावों का रोहतास से शांतिपूर्ण आगमन हो चुका था। वेरो तथा खरवार 16वीं शताब्दी में पलामू को अपने अधीन कर चुके थे। बाहर से आए यह सभी मुंडा जनजाति की भूमि पर दबाव डालने लगे जिसके कारण वे अपने गांव छोड़ने पर विवश हो गए। तथा रांची जिले के उत्तरी पूर्वी भाग के जंगलों तथा पहाड़ियों में उन्हें स्थानांतरित (Transfer) होना पड़ा। जहां वे अभी तक कुछ प्राचीन खूंटकट्टी प्रथा को बनाए हुए हैं।

बाद में चलकर भैया, लाल, बराईक, पांडेय, जमादार तथा ओहदार ने अपने को धनी तथा शक्तिशाली बनाने के लिए मुंडाओं की जमीन को अपना लक्ष्य बनाया। दान मे दिए जमीन के स्वामी से उपज का कुछ हिस्सा रैयतों से तसीलने लगे जो बाद में चलकर पैसे के रूप में तसील किया जाने लगा। जमीन पर जागीरदारों का अधिकार स्थाई हो गया तथा राजहास काश्तकारी का जन्म हुआ बाद में चलकर इस नवीन काश्तकारी के अंतर्गत खूंटकट्टीदारों को भी शामिल कर लिया गया।

यद्यपि मुंडा पाहन तथा परंपरागत ग्राम पंचायत के अन्य सदस्यों को कर मुक्त कर विशिष्ट भूखंड दिए गए। जिसे मुंडाई पहनाई भूतकेट्टा डाली कटारी तथा पनभरा भूमि कहा जाता था टूटे हुए खूंटकट्टी गांवों से भुईयारी गांवों का उद्भव हुआ।

ब्रिटिश शासन काल के दौरान झारखंड में जनजातीय भूमि हस्तांतरण की समस्या गंभीर हो गई थी। 19वीं शताब्दी के तृतीय दशक में छोटानागपुर में बंगाल छोड़ के नए नियमावली तथा नियमों को लागू किए जाने के कारण जनजातीय भूमि को गैर जनजातीय समुदायों द्वारा हड़पना आसान हो गया था। झारखंड में जनजातीय भूमि हस्तांतरण के विरुद्ध 1859 से 1881 के दौरान अनेक आंदोलन हुए जिनमें सरदार आंदोलन तथा खरवार आंदोलन प्रमुख थे। बाद में बिरसा आंदोलन ने इस समस्या के विरोध क्रांतिकारी रुख अपनाया 1845 ईस्वी में छोटानागपुर में ईसाई मिशनरियों के आगमन के बाद जनजातीय भू समस्या के विरुद्ध आवाज उठाई जाने लगी।

रोमन कैथोलिक मिशन के फादर लिवेंस ने यहां की जनजातियों के भूमि हस्तांतरण समस्या के दूर करने के लिए आवाज उठाई।

इसाई धर्म के आंतरिक सरदारों ने अपने हड़पी गई भूमि की वापसी के लिए उच्चतम न्यायालय वायसराय तथा लेफ्टिनेंट गवर्नर से आवेदन कर वैधानिक संघर्ष किया। किंतु इस संदर्भ में उन्हें सफलता नहीं मिली झारखंड के टाना भगतो तथा साफा होड़ो को भी 1921 से 1931 के दरमियान असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण अपनी जमीन खोनी पड़ी थी। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने बिरसा आंदोलन के बाद छोटानागपुर की जनजातीय समस्या के निदान के लिए फादर हाफमैन को छोटानागपुर की जनजातियों के अधिकार भूमि व्यवस्था तथा उत्तराधिकार कानून को संहिताबद्ध करने की जिम्मेदारी सौंपी।

फादर हॉफमैन की अनुशंसा को छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 के अंतर्गत शामिल किया गया। ईसाई मिशनरियों ने कालांतर में छोटानागपुर की जनजातीय भूमि समस्या का दूर करने में अपेक्षित सहयोग नहीं दिया, क्योंकि यह मिशनरियों ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के अधीन कार्यरत थी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अलग अलग राजनीतिक दलों ने जनजातीय कृषकों की समस्याओं में रुचि लिया और इसे अपने राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के साधन के रूप में ईस्तेमाल किया। झारखंड में व्याप्त कृषक असंतोष प्रमुख रूप से आर्थिक समस्याओं से जुड़ा हुआ था। सरकार द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न जनजातीय विकास परियोजनाओं के सफल कार्यान्वयन (किसी निश्चय को कार्यरूप में बदलना) के अभाव में जनजातीय कृषको में परस्पर आर्थिक समानता पहले की अपेक्षा कम नहीं हुई है।

जिसके कारण कृषक असंतोष को भी बढ़ावा मिला है, लघु सीमांत तथा बटाईदार कृषको तथा भूमिहीन कृषि श्रमिकों की समस्याए ही कृषक और संतोष के आधार थी। जिनका निराकरण उनकी आर्थिक समस्याओं के समाधान से ही संभव है, जनजातीय गांवों में निवास करने वाले कमजोर वर्गों के लिए विकास कार्यक्रम बनाकर उन्हें प्रभावकारी ढंग से कार्यान्वित (व्यवहार में लाया हुआ) करने की आवश्यकता है।

भू – हदबंदी (सीमा का निर्धारण करना ; सीमांकन) अधिनियम बन जाने के बाद भी कोई व्यवहारिक परिणाम नहीं निकल पाया इस अधिनियम को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू की जाने की आवश्यकता थी। प्राय: जनजातीय गांवो में सीमांत तथा लघु कृषक अपनी भूमि से आजीविका उपार्जित ना कर पाने के कारण महाजनों से ऋण लेते थे। तथा लंबी अवधि तक ऋण का भुगतान ना कर पाने के कारण उन्हें ऋणों को अदा करने के लिए अपनी भूमि भी बेचनी पड़ती थी। इस समस्या के दूर करने के लिए कृषकों को उचित समय पर आसानी पूर्वक सहकारी संस्थाओं के माध्यम से उदार शर्तों पर ऋण दिए जाने का प्रावधान होना चाहिए था।

तथा एक निश्चित सीमा के बाद किसी भी कृषक में भूमि बेचने तथा अन्य व्यक्ति द्वारा इस भूमि को खरीदने अधिकार नहीं होना चाहिए था, इस तरह के अधिनियम बनाकर इसे प्रभावशाली ढंग से लागू करने की आवश्यकता थी। झारखंड के जनजातीय भूमि हस्तांतरण समस्या के समाधान की दृष्टि में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908, संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (पूरक अधिनियम) 1949 बिहार अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम 1969 का अपना विशिष्ट महत्व है।

इन काश्तकारी अधिनियमों को वर्तमान संदर्भ में समीक्षा उपरांत संशोधन करने की आवश्यकता है भूमि पर जनसंख्या के दबाव को नियंत्रण करने के लिए जनजातीय गांवो में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों पर आधारित लघु तथा कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। कृषक असंतोष को दूर करने के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न विकास कार्यक्रमों को भ्रष्टाचार तथा अनियमितताओ से मुक्त कर सरकारी कार्यकर्ताओं तथा कृषको के बीच पारस्परिक समन्वय के आधार पर समुचित रूप से कार्यान्वित करने की आवश्यकता है ताकि वास्तविक लाभ सभी लाभान्वितो को मिल सके।

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