अंग्रेजों के साथ पलामू के राजाओ के साथ संबंध कैसा था? | How was the relation with the Rajas of Palamu with the British? | Arts (I. com) Semester 3 झारखंड का इतिहास (history)

How was the relation with the Rajas of Palamu with the British?

विश्रामपुर का किला का फोटो Palamu kile ka photo

सन् 1767 ईस्वी में सिंहभूम में अंग्रेजो को प्रारंभिक सफलता मिलने के बाद कंपनी कि नजर पलामू (Palamu) के क्षेत्रों पर पड़ा। इस क्षेत्र में व्याप्त राजनीतिक अव्यवस्था और गड़बड़ी से अंग्रजी कंपनी को अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। बहुत ही आसानी से अंग्रेज़ वहां अपना काम करते रहे किसी को ख़बर तक नहीं लगने दी, कि वो वहाँ क्या क्या कर रहा है और आगे क्या करने वाला है। रंगा के ठाकुर अमर सिंह ने जयकृषण राय को पलामू (Palamu) कि गद्दी पर बैठने में बहुत सहायता प्रदान की थी।

लेकिन अमर सिंह के पुत्र सयनाथ सिंह से जयकृष्ण राय का किसी कारणवश गंभीर मतभेद हो गया। जयकृष्ण राय को लगा कि ये हमारे रास्ते का बाधा बनेगा तो नरपति राय के पुत्र गजरात राय ने सयनाथ सिंह कि हत्या कर दी। सयनाथ सिंह के संबंधियो और समर्थकों ने इसका प्रतिरोध सन् 1770 ईस्वी में सतबरवा के निकट चेतका के युद्ध में जयकृष्ण राय को पराजित कर एवं हत्या करके लिया। पलामू का कानूनगो, अखौरी ऊदवंत राय, शेरघाटी परगना में रहता था, जयकृष्ण राय का बचा कूचा परिवार भाग कर वहीं चला गया।

चित्रजीत राय पलामू (Palamu) का राजा बना और जयनाथ सिंह उसका दीवान (Minister – पूरे भवन का दीवान ) बनाया गया। कुछ समय के बाद ऊदवंत राय अखौरी पटना गया, उसका उद्देश्य था जयकृष्ण राय के पौत्र और छत्रपती राय के पुत्र गोपाल राय के लिए पटना काउन्सिल से सहायता प्राप्त करना। पलामू (Palamu) विजय में निहित (जन्मजात) स्वार्थ के बावजूद उस समय तक अंग्रेज चेरो राजाओ के विरुद्ध कोई कारवाई करने से हिचकते रहे थे। कलकता स्थित कंपनी के अधिकारियों ने पटना काउन्सिल को स्पष्ट निर्देश दे रखा था कि पलामू (Palamu) को जीतने के लिए शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाए। किन्तु परिवर्तित स्थिति में कंपनी ने पलामू (Palamu) कि आंतरिक गड़बड़ी से लाभ उठाने का निर्णय किया।


इसी बीच चित्रजीत राय और जयनाथ सिंह ने पलामू (Palamu) के किले पर अधिकार कर लिया, इसलिए कंपनी ने गोपाल राय का समर्थन करने का निश्चय किया। कंपनी का प्रमुख उद्देश्य था पलामू के किले पर अधिकार करना अत: गुलाम हुसैन के माध्यम से जयनाथ सिंह को कहा गया कि वह शांतिपूर्वक पलामू (Palamu) का किला कंपनी के हवाले कर दे, इसके लिए पटना काउन्सिल द्वारा जयनाथ सिंह के आग्रह पर उसे 10 दिनों का समय अपने चेरो सरदारों से विचार विमर्श के लिए दिया गया था।

लेकिन पटना काउन्सिल का विश्वास था कि जयनाथ समय विचार विमर्श के लिए नहीं बल्कि सेना जुटाने तथा पलामू (Palamu) के किले कि मोर्चाबंदी के लिए चाहता था। फिर भी जयनाथ सिंह को समय दिया गया और यह निर्णय लिया गया कि यदि वह किला अंग्रेजों के हवाले कर देता तो चित्रजीत राय को पलामू का राजा बना रहने दिया जाएगा। यह भी निर्णय लिया गया कि अगले दस वर्षों तक पलामू (Palamu) कि सालाना मालगुजारी 5000/ रुपए होगी वैसी स्थिति में गोपाल राय को मात्र 8000/ रुपए सलाना आमदनी वाली जागीर मिलने कि बात भी तय हो गई।

यदि जयनाथ किला सुपुर्द (hand over) नहीं करता तो उसके विरुद्ध समुचित सैनिक कारवाई करने का भी निर्णय लिया जा चुका था। इसी बीच पटना काउन्सिल ने पलामू (Palamu) पर संभावित हमले की सभी तैयारियां कर रही थी। कैप्टन जैकब कैमक को पलामू (Palamu) अभियान के लिए तैयार रहने को कहा गया, 19 जनवरी सन् 1871 ईस्वी को पटना काउन्सिल ने कैमक को आदेश दिया कि वह जल्द से जल्द पलामू के किले पर अधिकार कर ले। इधर जयनाथ सिंह ने अपना उत्तर पटना काउन्सिल को भेज दिया था, जिसमे उसने कहा था वह कंपनी अधीनता मानने और पलामू का किला कंपनी को सौंपने के लिए तैयार है।


बशर्ते उसे जीवन सम्मान एवं उत्तराधिकार की गारंटी दी जाए, पलामू कि मालगुजारी वसूलने का काम भी उसे ही सौंपा जाए। और मालगुजारी की रकम 4000 रुपये आधी और आधी नकदी वसूली जाए, पलामू मे कोई फैक्ट्री या रेसीडेंसी स्थापित ना कि जाए उसे पटना जाने के लिए नहीं कहा जाए। विश्रामपुर राज्य उसे सौंप दिया जाए, गोपाल राय को पलामू भेज दिया जाए। सोन तट पार स्थित देवरी ( जिस पर गुलाम हुसैन खाँ का अधिकार था ) उसे लौट दिया जाए, और उपर्युक्त सभी शर्तों को पटना काउन्सिल विधिवत ईसा के नाम पर शपथ लेकर स्वीकृति दे।


कैमक एवं बारलैंड ने जयनाथ की शर्तों को अनुचित समझा क्योंकि जयनाथ पटना जाने को तैयार नहीं था। कंपनी को आशंका थी कि गुलाम हुसैन कि सहानुभूति जयनाथ के साथ थी। कैमक का निश्चित मत था कि गोपाल राय को कंपनी कि सहायता मिलनी चाहिए। उसका अनुमान था कि पलामू विजय में कोई विशेष युद्ध कि संभावना नहीं थी, और वह आसानी से पलामू के किले पर कब्जा कर सकता था। पटना कौंसिल को भी विश्वास हो गया था कि जयनाथ सिंह पलामू का किला कंपनी को देना नहीं चाहता था।


इसलिए पटना कौंसिल ने कैमक को अविलंब (देर ना करते हुए) पलामू का किले पर अधिकार करने का आदेश दिया। कैमक ने अपने सेना के साथ पलामू के किले कि ओर चल पड़ा। कुछ संघर्ष के पश्चात चेरो के द्वारा नया किला त्यागने के पश्चात कैमक ने उस किले पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। किन्तु पुराने किले से चेरो अंग्रेजों का प्रतिरोध करते रहे और संघर्ष काफी लंबा खींच ग़या था। इस बीच समस्या का शांतिपूर्ण समाधान के लिए जयनाथ सिंह और कैमक के बीच कई पत्रों के माध्यम से बात विमर्श किया गया। लेकिन कोई बात नहीं बनी, अनंतत: आखिर कैमक ने पुराने किले पर अधिकार करने का फैसला किया।

पटना कौंसिल ने कैमक को पलामू के किले पर कब्जा करने अंतिम आदेश दिया।


और 19 फरवरी सन् 1871 ईस्वी को पटना कौंसिल ने कैमक को पलामू के किले पर कब्जा करने और गोपाल राय को गद्दी पर बैठने का अंतिम आदेश दिया। जयनाथ सिंह को पलामू से निकाल बाहर करने का आदेश दिया गया। कुछ संघर्ष के बाद 21 मार्च सन् 1871 ईस्वी को किले के रक्षकों ने आत्मसमर्पण कर दिया, और चेरो राज चित्रजीत राय और ठकुराई जयनाथ सिंह रामगढ़ भाग गए। पलामू के किले के पतन के बाद कैमक को वहाँ यथाशीघ्र शांति स्थापित करने का आदेश दिया गया। कंपनी की सेना पटना लौट गई और मात्र एक छोटी सी टुकड़ी पलामू किला में छोड़ दी।

कैमक की सफलता पर पटना कौंसिल को बहुत खुशी हुई, और उन सभी लोगों को पुरस्कृत भी किया गया। जिन्होंने पलामू अभियान में कैमक कि सहायता की थी। इस बीच जून सन् 1771 ईस्वी में जयनाथ सिंह पलामू लौट आया। किन्तु अंग्रेजों द्वारा पराजित होकर सुरगुजा भाग गया, 1 जुलाई सन् 1771 ईस्वी को गोपाल राय को पलामू का राजा घोषित किया गया। तीन वर्षों के लिए पलामू की मालगुजारी 12 हजार रुपये तय की गई। इस प्रकार जुलाई 1771 ईस्वी के मध्य तक प्राय: सम्पूर्ण पलामू पर कंपनी का अधिकार हो गया।

नागपूर तथा सुरगुजा से आक्रमण करने वाले मराठों के विरुद्ध अब पलामू का एक रक्षा लाइन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता था, न ही अब सासाराम, सिरिस कुटुंबा तथा शेरघाटी के विद्रोही जमींदार पलामू में शरण ले सकते थे।

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