रक्षाबंधन की असली कहानी क्या है? दुनिया में सबसे पहले राखी किसने बांधी थी? इतिहास क्या है? रक्षाबंधन पर राखी क्यों बांधी जाती है?
श्रावण का महिना शिव भक्ति का माह माना जाता है, इस माह में मानो पूरा संसार जैसे पूरा शिवमय हो जाता है। साथ ही श्रावण मास की पूर्णिमा पर रक्षाबंधन का त्योहार भी मनाया जाता है। तो बहुत से कम लोगों को पता होगा कि आखिर रक्षाबंधन क्यों मनाया जाता है? कैसे इसकी शुरुआत हुई? इसका इतिहास क्या है ? किस प्रकार एक भाई अपनी बहन को रक्षा का वचन देकर उसके लिए प्रतिबंध हो जाता है।
रक्षाबंधन का महत्व, कारण और इतिहास समझने के लिए हमें धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तीनों पहलुओं के बारे में जानने की कोशिश करेंगे।

रक्षा बंधन क्यों मनाया जाता है?
रक्षा बंधन भाई-बहन के प्रेम, स्नेह और सुरक्षा के बंधन का त्योहार है। इस दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी (पवित्र धागा) बांधती है और उसकी लंबी उम्र व सुख-समृद्धि की कामना (दुआ) करती है। भाई बदले में बहन को उपहार देता है और जीवनभर उसकी रक्षा करने का वचन भी देता है।
रक्षाबंधन की पौराणिक कथा क्या है? धार्मिक कथाएँ और पौराणिक इतिहास
इंद्र-इंद्राणी कथा – वेदों से संबंधित
रक्षा बंधन की शुरुआत को लेकर कई पौराणिक कथाएँ हैं:
देवासुर संग्राम में जब इंद्रदेव असुरों से हारने लगे, उनकी पत्नी इंद्राणी ने यज्ञ करके रक्षासूत्र तैयार किया। उसने वह सूत्र इंद्र के हाथ पर बांध दिया, जिससे वे शक्तिशाली हुए और विजय प्राप्त की। इसे “रक्षासूत्र” की प्राचीन परंपरा माना जाता है।
राजा बलि और लक्ष्मी कथा – भागवत पुराण से
रक्षाबंधन और इसमे शिव महिमा की कथा प्रचलित है। तो पहले देवताओं और दानवों के बीच बहुत लड़ाइयाँ होती रहती थी। दानव हमेशा यह चाहते थे कि कैसे देवताओं से अमृत प्राप्त किया जा सके। और उनके स्वर्ग पर कब्जा किया जा सके, जिनके लिए दानव कई कई वर्षों तक घोर तपस्या मे लिन रहते थे। और वरदान स्वरूप ब्रम्हा, विष्णु और महेश से मनचाहा वरदान मांगते थे। जिसके कितने बुरे परिणाम देवताओं को सहने पड़ते थे। राजा बलि जो रक्षसराज थे उनका जन्म राक्षस कुल मे हुआ था। परंतु उनका बर्ताव राक्षसों जैसा नहीं था, क्योंकि महाराज बलि भक्त प्रह्लाद के पुत्र थे। विष्णु भक्त होने के साथ ही महादेव जी के भी भक्त थे। महादेव के भक्ति से उन्होंने कई सारी सिद्धियाँ प्राप्त की थी। राजा बलि ने 111 यग संपूर्ण करने का अनुष्ठान किया था। तब देवताओं को ये चिंता होने लगी कि अगर राजा बलि ने ये अनुष्ठान पूर्ण कर लिया तो इनके हाथ से स्वर्गराज और अमृत दोनों ही राक्षसों के पास चले जाएंगे।
जिससे दानव पृथ्वी पर आतंक मचा देंगे, इसी दुविधा के हल हेतु सब देवतागन श्री हरी विष्णु जी के पास जाते हैं। श्री हरी विष्णु जी देवताओं की बात सुनकर राजा बलि के पास एक बटुक ब्राह्मण के रूप में जाते हैं। क्योंकि राजा बलि को महा दानी भी कहा जाता है। उनके द्वार पर आए किसी भी याचक को खाली नहीं जाने देते थे। जब विष्णु भगवान वामन अवतार में एक याचक के रूप में राजा बलि के पास गए। तो राजा बलि उनसे कुछ मांगने को कहा। जिस पर भगवान वामन मात्र तीन पग भूमि मांगते हैं। राजा बलि वचनबद्ध होकर उस बटुक ब्राह्मण को तीन पग भूमि देने का वचन दिया। राजा बलि से वचन प्राप्त करते ही ब्राह्मण वामन ने विराट रूप धरण कर लिया। उन्होंने एक पग में स्वर्ग दूसरे पग में धरती नाप ली अब वो तीसरा पैर कहाँ नापते? तब राजा बलि ने अपने वचन का पालन करने हेतु तीसरा पैर अपने सर पर रखने को कहा।
राजा बलि की दानशीलता देखकर भगवान विष्णु जी प्रसन्न हुए, और उन्हे वर मांगने को कहा। तो राजा बलि ने कहा जो माँगूँगा वो दोगे। तो बलि ने कहा की मैं जब जब मैं अपने महल में अंदर जाऊँ और जब जब महल से बाहर जाऊँ तब तब आप मुझको प्रत्यक्ष दिखो। तो भगवान बोले सीधे सीधे बोलो की द्वारपाल बन जाओ, अब महल में तुम कब जाओगे कब आओगे मुझे क्या पता, द्वारपाल खड़ा रहे उसी को पता रहता है कब आ रहे हो कब जा रहे हो। बलि बोला कुछ ऐसा ही समझ लीजिए। तो भगवान बन गए द्वारपाल बलि के। लक्ष्मी जी वहाँ आकार बहुत निवेदन किया भगवान से कहा चलो। तो भगवान कहते हैं कि मैं वचनबद्ध हूँ। मैं अपने भक्तों के अधीन हूँ, मैं कुछ नहीं कर सकता यदि एक बार भक्तों वचन दे दिया तो। लक्ष्मी जी ने कहा वैकुंठ नहीं चलोगे? कहा नहीं चलेंगे, जब तक बलि नहीं कहेगा तब तक नहीं जाएंगे। तो भगवान विष्णु जी वैकुंठ त्याग कर पाताल लोक में पहरा देने लगे।
दिन सी कन्या बनकर लक्ष्मी जी वहाँ जाती हैं राजा बलि के पास पहुंची तो राजा बलि ने कहा आईए क्या सेव करू? तब लक्ष्मी जी बोली कि मेरा कोई भाई नहीं है और मैंने जब से आपको देखा है तब से आपको ही भाई स्वरूप माना है। बलि बहुत प्रसन हुए, बोले आप भाई मानती ये तो बहुत अच्छी बात है। लक्ष्मी जी बोली लेकिन ये सबंध हमेशा के लिए हो जाए इसके लिए वचन देना होगा कि मेरी रक्षा की जिम्मेवारी आप लो और आपकी रक्षा के लिए जिम्मेवारी मैं लूँ। दोनों भाई बहन की रक्षा की जिम्मेवारी बहन भाई लेवे तब मानेंगे। सबंध हमारा मजबूत होगा। बलि ने कहा बहुत अच्छी बात है। कैसे करेंगे? लक्ष्मी जी बोली एक काम करते हैं हम एक सूत्र आपके हाथ में बांध देते हैं। ताकि जब जब आप उस सूत्र को देखो तो मेरी याद आई कि हां मेरी बहन है। मुझे उसकी रक्षा करनी है, और उसके बदले आप मुझे उपहार दे देना। उस उपहार को जब मैं देखूँगी तो मुझे भी अस्मरण आएगा आएगा कि मेरा भी भाई मुझे उनकी रक्षा का भाव रखना है।
बलि बोले ये बहुत अच्छी बात है , बलि बोले लाओ सूत्र बांधो। तब लक्ष्मी नई ने उनको सूत्र बांधा और और सूत्र बांधकर दोनों हाथ आगे कि भैया हमको उपहार दो। तो बलि ने कहा क्या चाहिए उपहार में, तो लक्ष्मी जी बोली उपहार में मुझे आपका ये द्वारपाल जो है उससे हमारा ब्याह करा दो। बलि बोले आर वह द्वारपाल नहीं है जगत पिता परमात्मा ब्रह्म नारायण साक्षात परमेश्वर हैं। वह तो मेरी भक्ति से रिच के द्वार पर खड़े हैं। वो द्वारपाल थोड़े ही है, अंदर से श्री हरी जी बाहर झाँककर देख रहे कि बाहर क्या चल रहा है। मुझे आज बरी करके ले जाएंगे कि नहीं। लक्ष्मी जी बोली वही मांगा है तो मुझे वही चाहिए। आप मेरा ब्याह करवा दो/ आर संभव है ही नहीं, उनका ब्याह केबल परंभा जगदंबा लक्ष्मी से होता होता। वह और किसी और का वरण नहीं करते। ये कहते ही वह कन्या लक्ष्मी के रूप में प्रकट हो गई बोले लक्ष्मी ही हूँ। अपने लक्ष्मी के हाथों से सूत्र धरण करवाया है। मैं आपकी सदा के लिए बहन हो गई हूँ।
कृपा कर मेरे प्राणनाथ को मुझे वापस करके भेज दो, तब बलि ने कहा ऐसे नहीं दूंगा विवाह बोल है तो फिर मेरे ही भवन में मेरे सामने आपका ब्याह होगा। तो वहीं पर श्री हरी जी का ब्याह हुआ जिस प्रकार कन्या दान होता है उसी प्रकार श्री हरी जी का दान किया बलि ने, लक्ष्मी जी से कहा ले जाओ। तब से यह प्रथा है और ये आज तक चल रही है। ऐसा ग्रंथों में लिखा है, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ। तो श्रावणी के दिन हमलोग रक्षा सूत्र अपनी बहन से बँधवाते हैं। और उसी को रक्षाबंधन कहते है। उस दिन बहन साक्षात लक्ष्मी है तो उनको प्रणाम करो उनके चरण छूओ चाहे वह छोटी हो या बड़ी हो। और हमेशा ध्यान रहे जब भी आप पैर छूए तो दोनों हाथ से पैर छूना चाहिए, एक हाथ से कभी नहीं छूना चाहिए। हो सके तो सर नीचे रखकर प्रणाम करो।
रक्षाबंधन की ऐतिहासिक घटनाएँ
धार्मिक कथाओं के अलावा इतिहास में भी रक्षा बंधन के विवरण मिलते हैं: –
रानी कर्णवती और हुमायूँ का एक किस्सा
- चित्तौड़ की रानी कर्णावती ने बहादुर शाह के आक्रमण से बचने के लिए मुगल सम्राट हुमायूँ को राखी भेजी।
- हुमायूँ ने इसे सम्मान से स्वीकार किया और उसकी रक्षा के लिए सेना लेकर पहुँचे (हालांकि समय पर नहीं पहुंच सके)।
रक्षाबंधन का त्योहार भारत में प्राचीन काल से मनाया जा रहा है। तो एक कहानी ये है कि बादशाह हुमायूँ और राजपूत रानी कर्णवती का नाम इस त्योहार से जुड़ा हुआ है। चित्तौड़ के राणा संग्राम सिंह सीसोदिया वंश के राजा थे, राना सांगा के नाम से भी जाने जाते हैं। उनकी रानी का नाम कर्णवती और राणा सांगा के दो पुत्र थे, विक्रमादित्य और उदय सिंह आगे चलकर बड़े पुत्र प्रताप मेवाड़ राणा बने, और महारण प्रताप के नाम से मशहूर हुए। राणा सांगा की जब मृत्यु हुई तो उस समय उनके दोनों पुत्र विक्रमादित्य और उदय सिंह बहुत छोटे थे। और इस लायक नहीं थे कि राजपाठ संभाल सके। इसलिए कर्णवती ने मेवाड़ के सिंहासन पर अपने बड़े पुत्र विक्रमादित्य को बैठाया और स्वयं राजपाठ संभालने में मदद करने लगी। इस बीच गुजरात के बहादुर शाह मेवाड़ पर कब्जा करने के लिए उस ओर कुच कर दिया।
रानी कर्णवर्ती को जब यह समाचार मिला तो वह बहुत चिंतित हुई। उन्होंने राजपूत राजाओं से मदद मांगी लेकिन उनलोगों ने कई शर्ते लगा दी। इससे रानी सोच में पड़ गई। उन्होंने काफी सोच विचार किया और फिर मुगल सम्राट हुमायूँ को राखी भेज कर उनसे मदद मांगने का निश्चय किया। रानी कर्णवती के इस निर्णय को जब उसके दरबारियों ने सुना तो हैरान रह गए। पहला ये कि हुमायूँ मुस्लिम था, इसलिए उन्हे संदेह था कि एक मुस्लिम के विरुद्ध हुमायूँ एक हिन्दू रानी की मदद क्यों करेगा। और दूसरा कारण यह था कि हुमायूँ मुगल वंश के संस्थापक बाबर का पुत्र थ और बाबर राणा सांगा के बीच खनवा में जबरदस्त युद्ध हो चुका था। उस युद्ध में घायल होने की वजह से ही राणा सांगा की मृत्यु हुई थी। इसलिए रानी के किसी भी दरबारी को यह उम्मीद नहीं थी कि हुमायूँ अपने पिता के शत्रु की पत्नी यानि रानी कर्णवती की मदद करेगा।
लेकिन रानी कर्णवती अपने निश्चय पर अडिग रही। वे बोली हुमायूँ भले ही मुस्लिम है पर वे भारतवर्ष के एक बड़े सुल्तान है। मुझे पूरा यकीन है वे रिश्तों की अहमियत समझते होंगे। और मेरी राखी की लाज रखेंगे। कर्णवती की राखी लेकर जब पत्र वाहक दिल्ली पहुंचा उसे पता चला की हुमायूँ इस समय ग्वालियर में हैं। हुमायूँ ने उस वक्त ग्वालियर में अपना पड़ाव डाल रखा था। और वह बंगाल पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा था। पत्र वाहक ने यह जानकार अपना घोड़ा मोड दिया और ग्वालियर जा पहुंचा। रानी कर्णवती की राखी और पत्र देखकर हुमायूँ को आश्चर्य के साथ साथ प्रसन्नता हुई। उसने पत्र वाहक से कहा कि आप अपनी रानी साहिबा से कहिएगा कि वो अपना हौसला बनाए रखे। मैं जल्दी ही ही अपनी सेना के साथ चितौड़ पहुँच रहा हूँ।
हुमायूँ बिना समय गँवाए अपना कुछ सैनिकों को दिल्ली की तरफ रवाना कर दिया इसके साथ ही उसने भी दिल्ली की तरफ कूच कर दिया। दिल्ली पहुंचकर हुमायूँ ने अपनी सेना ली और फिर चितौड़गढ़ की ओर निकल गए। लेकिन हुमायूँ के चितौड़ पहुँचने से पहले गुजरात के राजा बहादुर शाह ने चितौड़पर आक्रमण कर दिया। रानी कर्णवती ने अपनी छोटी सी सेना के साथ बहादुर शाह का सामना किया। लेकिन वो ज्यादा देर तक उसका सामना नहीं कर पाई। उन्होंने अपनी हार होती देख कर 8 मार्च 1535 को जौहर (आत्मदाह) कर लिया। कर्णवती के जौहर करते ही चितौड़ की सेना का रहा सहा मनोबल भी टूटता गया। बहादुर शाह ने बड़ी आसानी से कर्णवती की सेना को हराकर वहाँ पर अपना कब्जा कर लिया। हुमायूँ जब अपनी सेना लेकर चितौड़ पहुंचा तो वहाँ पर बहादुर शाह का कब्जा हो चुका था।
वहीं पर रानी कर्णवती के जौहर की खबर मिली। यह सुनकर उसे बहुत दुख हुआ, लेकिन जब उसे यह पता चल कि दोनों पुत्र विक्रमादित्य और उदय सिंह बूंदी के किले में सुरक्षित है तो उसे थोड़ा सुकून मिला हुमायूँ ने कर्णवती की राखी का लाज को रखते हुए बहादुर शाह को चितौड़ से मार भगाया। उसके बाद बूंदी से उनको पुत्रों को बुलाया और चितौड़ के सिंहासन कर्णवती के बड़े पुत्र विक्रमादित्य के हवाले कर दिया। इस ऐतिहासिक घटना को हुए कई सौ साल बीत चुके हैं। आज न हुमायूँ है और न ही कर्णवती, लेकिन भाई बहन का यह अनूठा रिश्ता कहानियों और कविताओं में आज भी जिंदा है।
ऐसी बहुत सी पौराणिक और ऐतिहासिक किस्से हैं जो रक्षाबंधन से जुड़ी हुई है: –
महाभारत में रक्षाबंधन का प्रत्यक्ष उल्लेख तो नहीं मिलता, हालांकि, रक्षाबंधन से मिलती-जुलती भावनाओं और रक्षा के प्रतीक के रूप में कुछ कथाएं महाभारत में हैं, जो रक्षाबंधन की मूल भावना—रक्षा, प्रेम, और विश्वास—को दर्शाती हैं। ये कथाएं भाई-बहन के पवित्र रिश्ते और रक्षा के वचन को उजागर करती हैं।
श्री कृष्ण और द्रौपदी की कथा – महाभारत से
महाभारत में एक प्रसिद्ध घटना है, जब एक बार श्रीकृष्ण की ऊँगली से रक्त निकलने लगा। द्रौपदी ने अपनी साड़ी का टुकड़ा फाड़कर कृष्ण जी के उँगली पर बांध दिया। कृष्ण ने वचन दिया कि अवसर आने पर वे उसकी रक्षा करेंगे। यह घटना तब हुई जब श्रीकृष्ण जी शिशुपाल का वध किया और उनके सुदर्शन चक्र से उनकी उंगली चोटिल हो गई। जब दुर्योधन और दुष्ट दुराचारी कौरवों ने द्रौपदी का चीरहरण करने का प्रयास किया, तब श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाई। और अपने वचन को पूरा किया और जब जरूरत पड़ेगी मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा बस एक बार आवाज मुझे लगा देना मैं आसपास ही रहूँगा। तो यह कथा रक्षाबंधन के भावनात्मक और रक्षा के पहलू को दर्शाती है, जहां एक कपड़े का टुकड़ा (राखी का प्रतीक) भाई-बहन के बंधन को मजबूत करता है।