झारखंड में सरदारी लड़ाई का इतिहास- सरदारी आंदोलन क्या है?
सरदारी आंदोलन को झारखंड के इतिहास में पुनरुत्थानवादी आंदोलन क्यों माना जाता है?सरदारी आंदोलन की सफलता विफलता पर प्रकाश डालें
सरदारी आंदोलन – झारखंड में भूमि का विवाद संघर्ष प्रतिसंघर्ष का दौर न जानें कई शताब्दियों से चली आ रही है, अत्याचार व सहनशीलता की सीमा जब टूटने लगती है तो विरोध प्रतिरोध का सुबह उठना स्वभाविक हो जाता है। इस कड़ी में कई आंदोलनों ने समाज को नई दिशा प्रदान की और कुछ विफलता के गर्त (dip) में समा गई। झारखंड विशेषकर छोटानागपुर क्षेत्र में भूमि व्यवस्था से असंतुष्ट मुंडा सरदारों का आंदोलन यानी सरदारी लड़ाई का यहां विशिष्ट स्थान है। सरकार व रैयतों तथा जमींदार व रैयतों के बीच की भूमि की लड़ाई ने सरदारी आंदोलन को जन्म दिया।
1831 ईस्वी में कोल विद्रोह ने कई आदिवासियों को अपनी जगह- भूमि छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर दिया था। कुछ समय पश्चात वे वापस लौटे तो उनकी भूमि का स्वामित्व छिन चुका था। इस घटना ने सरदारी आंदोलन को एक ठोस आधार प्रदान किया। सरदारी लड़ाई के अस्तित्व में आने के लिए कहीं न कहीं धर्म भी जिम्मेवार हैं, अपने जीवन के अस्तित्व बचाने तथा आर्थिक स्थिति को बेहतर करने की उम्मीद लिए अनेक आदिवासियों ने ईसाई धर्म को अपना लिया था। परंतु जमींदारों की शोषण से उन्हें निजात नहीं मिला परिणामस्वरूप रैयतों के नेतृत्व में सरदारी आंदोलन लड़ी गई।
छोटानागपुर खास में 1858 ईस्वी में अनेक गांवों के ईसाइयों ने जमींदार के बढ़ते अत्याचार के खिलाफ अपने झंडे बुलंद किए। स्थानीय झड़पों के बाद यहां लड़ाई संपूर्ण क्षेत्र में धीरे-धीरे फैल गई और धीरे-धीरे या आंदोलन का स्वरूप ले ली।
सरदारी आंदोलन का मुख्य कारण
अपनी जमीन पाने की आश में आदिवासियों, ईसाइयों ने कानूनी सहायता भी ली और कानूनी तरीके से हल तलाशने की पूरी कोशिश की। जमींदार तो उनके निशाने पर पहले से ही थे जब सफलता हाथ नहीं लगी तो प्रशासकों और न्यायकर्ताओं की प्रति उनमें अविश्वास की भावना जगी। उन तमाम ईसाई आदिवासियों के दिमाग में यह बात घर कर गई थी कि उनके असल में शत्रु दिक्कू (सम्पूर्ण आदिवासी समाज को दिकू कहा जाता है) है। मिशन स्कूलों से प्रभावित उनके विचार उग्र होते गए तथा तत्कालीन भूमि संबंधी प्रतिबंधों को मानने से इनकार करने लगे यहां तक की मालगुजारी देने से मना कर दिया।
झारखंड भूमि आंदोलन के मुख्य कारण
मुंडा सरदारों को या विश्वास हो चला था कि गैर मुंडा द्वारा उन्हें न्याय नहीं मिल सकता, हालांकि सरकार ने जमीन मालिकों एवं काश्तो की परिभाषा निर्धारित करने की कोशिश की। लेकिन मुंडा संतुष्ट नहीं हुए, 1867 ईसवी में ईसाइयों ने सरकारी अधिकारी और छोटानागपुर राजा के खिलाफ याचिका दायर कर दी। उसी वर्ष एक कानून बना जिसके अनुसार गत 20 वर्षों में जिन जिन रैयतों से उनकी जमीन छीनी गई थी उन्हें वापस किया जाएगा। जमीन लौटाने की प्रक्रिया 1880 ईसवी तक चली, इससे जमीन मालिकों एवं काश्तकारों के बीच एक विवाद कुछ हद तक सुलझा।
परंतु मुंडा अपने पुरखों के द्वारा मिले समस्त जमीन को पाना चाहते थे, जमीदारों की मनमानी वा रैयतों के बढ़ते विरोध के बीच 1876 ईसवी में जमीन में शान याचिका दायर की। जिसके मद्देनजर सरकार ने मिशन की देशी कमिश्नरों के खिलाफ शिकायत को अमान्य कर दिया। 1879 ईस्वी में मुंडाओं ने एक याचिका दायर की कि संपूर्ण छोटानागपुर उनकी संपत्ति है। 2 साल बाद सरदारों के एक दल ने दोइसा को राजधानी बनाकर छोटानागपुर को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया इस आंदोलन में सभी को सजा मिली।
धीरे-धीरे मुंडाओं ने दोनों मिशनों जर्मन और कैथोलिक से संबंध तोड़ कर उनका विरोध करना शुरू कर दिया। मिशन से मोहभंग होने के बाद उन्हें कानूनी सहायता प्रदान की गई, परंतु मुंडा तत्कालीन व्यवस्था से परेशान होकर वकिलों से भी अपनी दूरी बना ली। ब्रिटिश शासन को अपना दुश्मन समझने लगे उस वक्त के ठेकेदारों तथा मिशनरियों को मारने का षड्यंत्र रचा गया। इसमें उन्हें असफलता हाथ लगी, समय के साथ उनका आंदोलन राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करता गया। उसी समय बिरसा मुंडा का आगमन हुआ, बिरसा के आंदोलन में शामिल हो जाने से सरदारी लड़ाई को ठोस आयाम मिला।
बिरसा के विचार मुंडा सरदारों को प्रभावित करने लगे उनके उग्र विचारों एवं प्रचारों ने चारो ओर भय का वातावरण बना दिया। बिरसा के अनुयायियों के साथ मुंडा सरदारों पर भी मुकदमे चले और सजा दी गई।
जहां तक सरदारी आंदोलन की सफलता और विफलता का प्रश्न उठता है तो उनका उद्देश्य अवश्य सफल रहा बिरसा मुंडा के आने से पहले तक यह सरदारी आंदोलन सिर्फ रैयतों की थी। उन लोगो के पक्ष की तरफ से नेतृत्व के अभाव के कारण लड़ाई अंजाम तक नहीं पहुंच पा रही थी। बिरसा के उग्र विचार ने जनसमूहों को नई आशा का संचार किया, परंतु तत्कालीन सरकार को या नागवार गुजरा। इस कारण आंदोलनकर्ताओं को सजा मिली और लड़ाई का समापन हो गया, इस सब का सुखद परिणाम यह रहा की 1908 ईस्वी में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम अस्तित्व में आया, आदिवासियों की दशा बहुत हद तक सुधरी।