उरांव जनजाति का इतिहास | Uraon janjati ka itihas

उरांव जनजाति इतिहास : Uraon janjati history

यह जनजाति छोटानागपुर के पठार में संथाल परगना जिले में निवास करते हैं। यह आस्ट्रोलायड प्रजाति जनजातिि होते है। उरांव जनजाति कुरुख भाषा बोलते हैं जो मुंडा भाषा से मिलती-जुलती है। यह गांव में स्थाई निवास करते हैं यह पितृवंशीय जनजाति है। यह हल से खेती करते हैं कुछ शिकार और मछली मारने का व्यवसाय करते हैं

  • ये झारखंड की दूसरी तथा भारत की चौथी सबसे अधिक जनसंख्या वाली जनजाति है। जनजातियों की कुल जनसंख्या में इनका तकरीबन 18.14% का हिस्सेदारी है।
  • उरांव जनजाति का सर्वाधिक संकेंद्रण यानी सबसे ज्यादा आबादी दक्षिणी छोटानागपुर एवं पलामू प्रमंडल में है। झारखंड में 90% उरांव जनजाति का निवास स्थान इसी क्षेत्र में है और इसके अतिरिक्त संथाल परगना उत्तरी छोटानागपुर तथा कोल्हान प्रमंडल में निवास स्थान है।
  • ऐतिहासिक तथ्यों की माने तो उरांव जनजाति का मूल निवास स्थान दक्कन में माना जाता है।
  • उरांव जनजाति खुद को कुडुख कहते हैं जिसका मतलब जिसका शाब्दिक अर्थ मनुष्य होता है। उरांव जनजाति के लोग कुडुख भाषा बोलते हैं यह द्रविड़ परिवार की भाषा है।
  • प्रजातीय एवं भाषाई दोनों विशेषताओं के आधार पर इस जनजाति का संबंध द्रविड़ समूह से है।
  • यह झारखण्ड की सबसे सिक्षित एवं जागरूक जनजाति मानी जाती है। यही कारण है कि झारखंड की जनजातियां में सर्वाधिक विकास उरांव जनजाति का ही हुआ है।

उरांव जनजाति का संस्कृति

  • उराव जनजाति का प्रथम वैज्ञानिक अध्ययन शरच्चचंद्र राय ने किया था तथा इनके अनुसार उराव जनजाति में 68 गोत्र पाए जाते हैं।
  • उरांव जनजाति को मुख्य रूप से 14 गोत्रों (किली) में विभाजित किया है।

उरांव जनजाति का गोत्र और उनके प्रतीक

गोत्र/जातिप्रतीक
किस्पोट्टासूअर की अंतड़ी
केरकेट्टागौरैया पक्षी
खाखाकौआ
गाड़ी/तिग्गाबंदर
तिर्कीचिड़ियाँ
बेकनमक
मिंजसांपाकार मछली
बारला/बाड़ाबटवृक्ष
किंडोमछली
खलखोमछली
लकड़ाबाघ
बरवाजंगली कुत्ता
कुजूरलता
मुंजनीलता
खोयाजंगली कुत्ता
खेसधान
एक्का/कच्छपकछुआ
टोप्पोछोटी चिड़ियाँ
बाखलाघास
तारा
रुंडालोमड़ी

  • ये जनजाति में गोदना (Tattoo) प्रथा प्रचलित है महिलाओं में गोदना को अधिक महत्व दिया जाता है।
  • उरांव जनजाति में समगोत्रीय विवाह निषिद्ध होता है।
  • ये जनजाति में आयोजित विवाह सर्वाधिक प्रचलित है जिसमें वर पक्ष को वधू मूल्य देना पड़ता है।
  • उरांव जनजाति में सेवा विवाह की प्रथा प्रचलित है जिसके अंतर्गत जिस लड़का का शादी जिस लड़की से होने वाली होती है उसके परिवार की कुछ समय तक सेवा करनी पड़ती है।
  • ये प्रजाति में विधवा विवाह का भी प्रचलन है।
  • उरांव जनजाति में एक ही गांव में के लड़का लड़की के बीच शादी नहीं किया जाता है।
  • इस जनजाति में आपसी में नाता स्थापित करने हेतु ‘सहिया‘ का चुनाव किया जाता है, जिसे ‘सहियारो‘ कहा जाता है। प्रत्येक 3 वर्षों के धन कटनी के बाद ‘सहिया चयन समारोह‘ का आयोजन होता है।
  • इस जनजाति में आपसी मित्रता की जाती है। लड़कियां इस प्रकार बने मि‌त्र को ‘गोई’ या ‘करमडार’ तथा लड़के को ‘लार’ या ‘संगी’ कहते हैं। विवाह के बाद लड़कों की पत्नी आपस में एक दूसरे को ‘लारिन’ या संगिनी कहकर बुलाती है।
  • इस जनजाति में परिवार की संपत्ति पर केवल पुरुषों का अधिकार होता है ऐसी मान्यता है।

उरांव जनजाति में सामाजिक व्यवस्था से संबंधित विभिन्न नामकरण :-

युवागृहघुमकुरिया
ग्राम प्रधानमहतो (मुखिया )
पंचायतपंचोरा
नाच का मैदानअखाड़ा
  • उरांव जनजाति में त्यौहार के वक्त पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र ‘केरया‘ तथा महिलाओं द्वारा पहना पहना जाने वाला वस्त्र खनरिया कहलाता है।
  • ये जनजाति पितृसत्तात्मक तथा पितृवंशीय होता है।
  • उरांव जनजाति का प्रमुख नृत्य को मधुर कहा जाता है।
  • यह जनजाति के लोग प्रत्येक वर्ष वैशाख में विसू सेंदरा, फागुन में फागु सेंदरा तथा वर्षा ऋतु के प्रारंभ होने पर जेठ शिकार करते हैं। उरांवों द्वारा किए गए जाने वाले अनौपचारिक शिकार को दोराहा शिकार कहा जाता है।
  • ये जनजाति के वर्ष का प्रारंभ नवंबर–दिसंबर में धन कटनी के बाद होता है।
  • इस जनजाति का प्रमुख त्यौहार करमा (भादो माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी को) सरहुल, खद्दी (चैत माह के शुक्ल पक्ष की तृतीय को) जतरा (जेठ अगहन व कार्तिक माह में धर्मेश देवता के समान में), सोहराय (कार्तिक अमावस्या को पशुओं के सामान में) फागु पर्व (फागुन माह में होली के अवसर पर) आदि हैं।
  • यह जनजाति अस्थाई रूप से कृषक का कार्य करती है।
  • शुरुआती में छोटानागपुर क्षेत्र में आने के बाद उरांव जनजाति ने जंगलों को साफ करके कृषि कार्य शुरू किया था। ऐसे उरांवों को ‘भुईहर‘ कहा गया है तथा इनकी भूमि को ‘भुईहर भूमि‘ व गांव को ‘भुईहर गांव‘ कहा गया है। बाद में आने वाले उरांवों को ‘रैयत‘ कहा गया।
  • उरांवों में ‘पसरी‘ नामक एक विशेष प्रथा होती है। जिसके अंतर्गत आपस में मेहनत का विनिमय यानी लेनदेन किया जाता है। या किसी को हल बैल देकर उससे खेत को जोतने व कोड़ने में सहायता ली जाती है।
  • इस जनजाति का प्रमुख भोजन चावल जंगली पक्षी तथा फल आदि हैं। हड़िया उरांव जनजाति के लिए प्रिय पेय है।

उरांव जनजाति का धार्मिक व्यवस्था

  • उरांव जनजाति का प्रमुख देवता धर्मेश या धर्मी हैं जिन्हें जीवन तथा प्रकाश देने में सूर्य के समान माना जाता है।

इस जनजाति के अन्य प्रमुख देवी देवता हैं जो निम्न है–

मरांग बुरुपहाड़ देवता
ठाकुर देवग्राम देवता
डीहवारसीमांत देवता
पूर्वजात्माकुल देवता
  • यह जनजाति में फसल की रोपनी के समय ‘भेलवा पूजा’ तथा गांव के कल्याण के लिए वर्ष में एक बार ‘गोरेया पूजा’ का आयोजन किया जाता है।
  • उरांव गांव का धार्मिक प्रधान पाहन तथा उसका सहयोगी पुजार कहलाता है। उरांव का मुख्य पूजा स्थल सरना कहलाता है।
  • इनके पूर्वजों की आत्मा के निवास स्थान को सासन कहा जाता है।
  • यह जनजाति में जनवरी महीने में हड़बोरा संस्कार का आयोजन होता है। जिसमें साल भर में मरे गोत्र के सभी लोगों की हड्डियों को नदी में विसर्जित किया जाता है। जिसे गोत्र–खुंदी कहा जाता है।
  • एक मान्यता है कि हड़बोरा संस्कार के बाद उनकी आत्मा पूर्वजों की आत्मा से मिलती है। जिसे कोहाबेंजा कहा जाता है जैसा कि आम हिंदू धर्म में पिंडदान होता।
  • यह जनजाति तांत्रिक एवं जादुई विद्या में विश्वास रखते हैं।
  • उरांव जनजाति में जादू–टोना करने वाले व्यक्ति को माटी कहा जाता है।
  • ये जनजाति शवो का सामान्यत: दाह संस्कार करते हैं।
  • ईसाई उरांव के शव को अनिवार्यता: दफनाया जाता है तथा इनके सभी क्रिया-कर्म ईसाई परंपरा के अनुसार किया जाता है।
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