मुंडा जनजाति झारखंड की तीसरी सबसे प्रमुख जनजाति है। यह लोहरदगा सिंहभूम रांची तथा गुमला जिले में पाए जाते हैं। इनका जीविकोपार्जन का मुख्य साधन कृषि है, यह मुख्य रूप से काले रंग के होते हैं।
मुंडा जनजाति को कोल के नाम से भी जाना जाता है। मुंडा जनजाति झारखंड की तीसरी सबसे अधिक जनसंख्या वाली जनजाति है। जनजातियों की कुल जनसंख्या में इनका 14.56% का हिस्सेदारी है।
मुंडा शब्द का सामान्य अर्थ विशिष्ट व्यक्ति तथा विशिष्ट अर्थ गांव का राजनीतिक प्रमुख होता है।
मुंडा जनजाति का संबंध प्रोटो-ऑस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से है।
मुंडा लो मुंडारी भाषा बोलते हैं तथा भाषा की विशेषताओं के आधार पर इनका संबंध ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार से है।
मुंडा स्वयं को होड़ोको तथा अपनी भाषा को होड़ो जगर कहते हैं।
मुंडा जनजाति परंपरागत रूप से एक जगह से दूसरी जगह पर प्रवास करती रही है। आर्यों के आक्रमण के बाद ये जनजाति आजिमगढ़ (जो आज आजमगढ़ उत्तर प्रदेश में है) बस गई। कालांतर में मुंडा जनजाति का प्रवास कालंजर, गढ़चित्र, गढ़-नगरवार, गढ़-धारवाड़, गढ़-पाली, गढ़-पिपरा, मांडर पहर, बिजनागढ़, हरदिनागढ़, लकनौऊगढ़, नंदगढ़ (बेतिया, बिहार), रिजगढ़ (राजगीर, बिहार) तथा रूईदासगढ़ में होता रहा है। रुईदासगढ़ से यह जनजाति दक्षिण की तरफ प्रवासित हुई तथा ओमेडंडा (बुरमू, झारखंड) में आकर बस गई।
झारखंड में इस जनजाति का आगमन लगभग 600 ईसा पूर्व हुआ था।
झारखंड में मुंडा जनजाति का सर्वाधिक संकेंद्रण रांची जिला में है। इसके अलावा या जनजाति गुमला, सिमडेगा, पश्चिमी सिंहभूम तथा सरायकेला खरसावां में भी निवास करती है।
तमाड़ क्षेत्र में रहने वाले मुंडाओं को तमाड़ी मुंडा या पातर मुंडा कहा जाता है।
मुंडा जनजाति केवल झारखंड में ही पाई जाती है। वर्तमान समय में संचार साधनों के विकास के कारण ये जनजाति झारखंड से संलग्न राज्यों में भी कमोबेश संख्या में निवास करती है।
मुंडो द्वारा निर्मित भूमि को खूॅंटकट्टी भूमि कहा जाता है।
इनकी प्रशासनिक व्यवस्था में खूॅंट का आशय परिवार से होता है।
यह जनजाति मूलत: झारखंड में ही पाई जाती है।
मुंडा समाज की संस्कृति
सामाजिक दृष्टिकोण से मुंडा समाज ठाकुर, मानकी, मुंडा बाबू, भंडारी एवं पातर में विभक्त है।
मुंडा जनजाति में सगोत्रीय विवाह पर पाबंदी है।
मुंडाओं में विवाह का सर्वाधिक प्रचलित रूप आयोजित विवाह समारोह है। जिसके तहत मुंडा ओं का विवाह होता है।
मुंडा जनजाति में विवाह के अन्य रूप निम्न है-
राजी खुशी विवाह
वर वधु की इच्छा से (सर्वोपरि) विवाह
हरण विवाह
पसंद की लड़की का हरण करके विवाह
सेवा विवाह
ससुर के घर सेवा पश्चात वधू का विवाह
हठ विवाह
वधू द्वारा विवाह होने तक स्वर्ग यहां बलात् प्रवेश करके रहना।
मुंडा सामाजिक व्यवस्था से संबंधित विभिन्न नामकरण :-
युवागृह
गितिओड़ा
विवाह
अरंडी
विधवा विवाह
सगाई
वधु मूल्य
गोनोंग टका/(कुरी/गोनोंग)
ग्राम प्रधान
मुंडा
ग्राम पंचायत
हातू
ग्राम पंचायत प्रधान
हातू प्रधान
कई गांवों से मिलकर बनी पंचायत
पराह/पड़हा
पंचायत स्थल
अखाड़ा
पड़हा पंचायत प्रधान
मानकी
वंशकुल
खूंट
यदि स्त्री तलाक देती है तो उसे वधू मूल्य (गोनोंग टांका) का लौटना पड़ता है।
मुंडा जनजाति में तलाक को साकमचारी के नाम से जाना जाता है।
अधिकांश मुंडा परिवारों में एकल परिवार पाया जाता है।
मुंडा परिवार पितृसत्तात्मक एवं पितृवंशीय होता है।
इस जनजाति में वंशकुल की परंपरा को खुँट के नाम से जाना जाता है।
इस जनजाति में गोत्र को किल्ली के नाम से जाना जाता है।
जीयजले द्वारा मुंडा जनजाति के 340 गोत्र का जिक्र किया गया है।
मुंडा जनजाति के प्रमुख गोत्र एवं उनके प्रतीक
गोत्र
प्रतीक
नाग
सांप
बोदरा
मोर
धान
वेंगाधान
भेंगरा
घोड़ा
अईद
मछली
सोय
सोल मछली
मुंडु
बिरनी
टोपनों
लाल चींटी
पूर्ती
घड़ियाल
होरो
कछुआ
केरकेट्टा
पक्षी
बारजी
कुसुम
हंसा
हंस
सोमा सिंह मुण्डा ने मुण्डा जनजाति को 13 उपशाखाओं में विभाजित किया है। जिसमें महली मुण्डा तथा कंपाट मुण्डा सर्वप्रमुख हैं।
सोसो बोंगा (यह एक प्रकार का बैलेट) मुण्डा जनजाति की प्रसिद्ध लोककथा है जो इनकी परंपरा एवं विकासक्रम पर प्रकाश डालता है।
इस जनजाति में महिलाओं के द्वारा धान की बुआई करना, महिलाओं क छप्पर पर चढना तथा महिलाओं का दाह संस्कार में भाग लेने हेतु श्मशान घाट जाना वर्जित होता है।
इस जनजाति में गांव की बेटियों द्वारा सरहुल का प्रसाद ग्रहण करना वर्जित होता है। इस जनजाति में पुरूषों द्वारा धारण किये जाने वाले वस्त्र को बटोई या केरया तथा महिला द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र को परेया कहा जाता है।
इस जनजाति के प्रमुख पर्व सरहुल / बा पर्व (चैत माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को बसंतोत्सव के रूप में), करमा (भादो माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को), सोहराई (कार्तिक अमावस्या को पशुओं के सम्मान में), रोआपुना (धान बुआई के समय), बतौली (आषाढ़ में खेत जुताई से पूर्व छोटा सरहुल के रूप में) बुरू पर्व (दिसंबर माह में मनाया जाता है), मागे पर्व, फागु पर्व (होली के समरूप), जतरा, जोमनवा आदि हैं।
मुंडा जनजाति की आर्थिक व्यवस्था
मुण्डा कृषि व पशुपालन करते हैं। पशु पूजा हेतु आयोजित त्योहार को सोहराय कहा जाता है।
मुण्डा सभी अनुष्ठानों मे हड़िया एवं रान का प्रयोग करते हैं।
आर्थिक उपयोगिता के आधार पर इनकी भूमि तीन प्रकार की होती है : –
पंकु
हमेशा उपज देने वाली भूमि
खिरसी
बालू युक्त भूमि
नागरा
औसत उपज वाली भूमि
मुंडा जनजाति की धार्मिक व्यवस्था
इस जनजाति का सर्वप्रमुख देवता सिंगबोंगा (सूर्य के प्रतिरूप) है सिंगबोंगा पर मुंडाओं द्वारा सफेद रंग के फूल, सफेद भोग पदार्थ या सफेद मुर्गे की बलि चढ़ाने का रिवाज है।
मुंडाओं के अन्य प्रमुख देवी देवता
हातू बोंगा
ग्राम देवता
देशाउली
गांव की सबसे बड़ी देवी
खुँटहाँकार/ओड़ा बोंगा
कुल देवता
इकिर बोंगा
जल देवता
बुरू बोंगा
पहाड़ देवता
मुंडा जनजाति के पूजा स्थल को सरना कहा जाता है।
मुंडा गांव का धार्मिक प्रधान पाहन कहलाता है। जिसका सहायक पूजार/ पनभरा होता है।
मुंडा तांत्रिक एवं जादुई विद्या में विश्वास करते हैं तथा झाड़-फूंक करने वाले को देवड़ा कहा जाता है।
इस जनजाति में ग्रामीण पुजारी को डेहरी कहा जाता है।
मुंडा समाज में शव को जलाने तथा दफनाने दोनों प्रकार की प्रथाएं है। परंतु दफनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है।
जिस स्थान पर मुंडा जनजाति के पूर्वजों की हड्डियां दबी होती है उसे सासन कहा जाता है।
सासन में पूर्वज/मृतक के स्मृति में शिलाखंड रखा जाता है। जिसे सासन दिरि हड़गड़ी कहा जाता है।
I live in Jharia area of Dhanbad, I have studied till Intermediate only after that due to bad financial condition of home I started working, and today I work and write post together in free time............