बंगाल पर अधिकार स्थापित करने के बाद अंग्रेजों ने झारखंड में किस तरह अपना प्रभुत्व कायम किया? | झारखंड में अंग्रेज | Arts (I. com) Semester 3 झारखंड का इतिहास

बंगाल के रास्ते ब्रिटिश शक्तियां झारखण्ड में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में कहाँ तक सफल रही

झारखंड में अंग्रेज

Angrej in Jharkhand

आज इस ब्लॉग में जानेंगे की अंग्रेज किस तरह झारखंड में प्रवेश किया और आखिर अंग्रेज कौन सी नीति अपनाई थी झारखण्ड में घुसने के लिए। जानेंगे पुरे विस्तार से अंग्रेज आखिर झारखण्ड में क्यों घुसा? क्या कारण था अंग्रेजो को झारखण्ड में प्रवेश करने का।

अंग्रेज धीरे धीरे भारत के अलग अलग हिस्सों को अपने चालाक नीति से कब्जा करता जा रहा था। जिसमें से झारखंड के भी कई ऐसे हिस्से थे जिसको अंग्रेज धीरे धीरे अपने कब्जे में ले रहा था। अंग्रेजों का साम्राज्य धीरे धीरे भारत के कई हिस्सों के अलावा झारखंड में भी फैल रहा था। जिसका असर धीरे धीरे लोगों और वर्तमान राजाओं को भी दिखने लगा था, ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए से साम्राज्यवादी विस्तार को अंग्रेजों ने अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया था। यानी अंग्रेज ने जो नीति के को लागू कर अपना साम्राज्य भारत में धीरे धीरे बड़ा कर रहा था।

बंगाल को सन् 1765 ईस्वी में अपने under ले चुका था, इसके बाद अंग्रेजों ने व्यापार की आड़ में यानी Business के बहाने झारखंड पर भी अपनी सत्ता स्थापित करने की चाह में प्रवेश किया। वे भूल गए थे कि झारखंड के भौगोलिक एवं राजनीतिक स्थिति बंगाल से बिल्कुल अलग है, झारखंड पर नियंत्रण करने के लिए अंग्रेजों को बहुत लंबा समय इंतजार करना पड़ा। हालांकि अंग्रेजों ने साम दाम दंड भेद सारी की सारी की नीति को अपना कर और उसके बाद काफी हद तक सफल भी रहे।

झारखण्ड में अंग्रेजो का घुसने का मुख्य कारण क्या था?

झारखंड में अंग्रेजों की दिलचस्पी के बहुत से कारण थे, जिनमे से प्रमुख जो था झारखंड के रास्ते व्यापार को बेहद ही सुगम बना सकता था। क्योंकि अंग्रेजों को संथाल परगना के पहाड़ी क्षेत्रों से व्यापार करने में उन्हें बहुत विरोध का सामना करना पड़ रहा था। क्योंकि दूसरी तरफ दक्षिण पश्चिम बंगाल की सीमा को उन दिनों मराठों के अधिकार में था जहां अंग्रेज़ों को लेकर मराठा साम्राज्य बेहद ही सख्त था।जिसके कारण अंग्रेज उधर से नहीं जा सकते थे और ना ही जाते थे, उधर से जाने में अंग्रेजों को बहुत खतरा का सामना करना पड़ता था।

इसलिए अंग्रेज़ों ने मराठों के आक्रमण से बचने के लिए और सुरक्षा के लिहाज से अंग्रेजो को लगा कि झारखंड के पहाड़ी मार्गो और प्रमुख किले पर कब्जा कर इस समस्या से निजात पाया जा सकता है। जिस कारण व्यापार और सुरक्षा विस्तार के मद्देनजर रखते हैं फ़िलहाल अंग्रेजों ने झारखंड की तरफ रुख कर लिया था। इससे स्पष्ट हो गया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी का मिदनापुर (बंगाल) पर कब्जा सन् 1760 इसमें में हो गया था। उसके बाद सभी कंपनी झारखंड में प्रवेश के लिए पूरी तरह से तैयार हो चुकी थी। लगातार प्रयासों के बाद सिंहभूम के रास्ते अंग्रेजों ने झारखंड में प्रवेश किया।

सिंहभूम सहित आसपास के इलाकों में अपनी सत्ता का विस्तार की योजना अंग्रेजों ने बनाई। उन दिनों सिंहभूम, ढालभूम, पोरहाट तथा कोल्हान में स्थानीय राजा शक्ति के केंद्र था। सन् 1767 ईस्वी में अंग्रेजों ने फर्ग्यूसन को सिंहभूम में आक्रमण करने का जिम्मा सौंपा गया। मिदनापुर से चलकर फर्ग्यूसन की सेना ने रास्ते में झाड़ग्राम, रामगढ़, जामबनी, चतमा, रायपुर को कब्जा करने के बाद ढालभूम राज्य में प्रवेश की योजना बनाई।

ढालभूम में अंग्रेजों को काफी विरोध का सामना करना पड़ा, काफी प्रयास के बाद ढालभूम के राजा को बंदी बनाया गया। इससे पूर्व राजा ने देखा कि अंग्रेजों को रोक पाना मुश्किल है असंभव है, तो राजा ने अपने ही महल में आग लगा दी। सिंहभूम में अंग्रेज घुस तो गए थे, परंतु उनकी सफलता उनके लिए बड़ा सिरदर्द ही साबित हो गई थी। क्योंकि ढालभूम राजा के भतीजे जगन्नाथ ढाल ने लगभग 10 वर्षों तक अंग्रेजों को चने चबा दिए, खूब परेशान किया। आखिरकार विवश होकर अंग्रेजो ने जगन्नाथ ढाल को ढालभूम का राजा बना ही छोड़ दिया।

उसके एवज में कोई दूसरा नए राजा ने कंपनी को कर देना स्वीकार कर लिया था। इस तरह काफी जद्दोजहद के बाद अंग्रेजों का झारखंड में प्रवेश का यह कार्य 1777 ईस्वी में पूरा हो सका। ढालभूम अभियान के बाद बोरहाट एवं कोल्हान पर अधिकार करने के लिए अंग्रेजों ने एड़ी – चोटी एक करनी पड़ गई। सरायकेला और खरसावां राज्यों की एकजुटता से परेशान पोरहाट राजा ने कंपनी की अधीनता को शिकार करना ही बेहतर समझा। व्यापारिक लाभ बढ़ाने के मकसद से अंग्रेजों ने भी इस संबंध में व्यापार को विस्तार करना शुरू कर दिया था।

हालांकि अंग्रेजो को वहां से पर्याप्त आमदनी की आशा नहीं थी, तथा स्थाई सेना भी वहाँ नहीं रखी जा सकती थी। क्योंकि इन सब में अंग्रेजों को फायदा नजर नहीं आ रहा था, दोनों तरफ से लंबी बातचीत के उपरांत 1820 ईस्वी में पोरहाट राजा घनश्याम सिंह ने उनकी अधीनता स्वीकार कर लिया।

इसी तरह कोल्हान में भी अंग्रेजों को काफी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। कोल लड़ाकू ने मेजर रफसेज एवं मेलार्ड की सेना को समय समय पर कड़ी टक्कर देते रहते थे। सन् 1821 ईस्वी में कर्नल रिचर्ड कि समझौतावादी नीति से त्रस्त तथा कोल्हान में विद्रोह से परेशान अंग्रेजों ने कठोर निर्णय लिया। एक ब्रिटिश फौज ने कोल्हान में प्रवेश किया, और 4 माह तक कड़ी टक्कर होने के बाद सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस तरह कोल्हान से भी कर वसूली की अंग्रेजों की मनसा सफल हो चुकी थी।

इन सफलताओं के पश्चात कंपनी का प्रमुख उद्देश्य था पलामू के लोगों को अपने अधीन करना इस वक्त पलामू में कई छोटे राज्य थे। उन लोगों की आपस में बनती नहीं थी 36 का आंकड़ा चलता था, अपना अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए वे सभी आपस में लड़ते रहते थे। उनकी आपस की लड़ाई का फायदा अंग्रेजों ने उठाना शुरू कर दिया था। उन दिनों पलामू किले पर जयनाथ सिंह का अधिकार था। उसने कंपनी की अधीनता स्वीकार करने के लिए अंग्रेजो के सामने कई शर्तें रखी, जिसे पटना काउंसिल ने स्वीकार कर लिया था।

इसके बावजूद जब पटना काउंसिल को लगा कि जयनाथ सिंह पलामू किला कंपनी के हवाले नहीं करेगा, तो लेफ्टिनेंट डंकन को वहाँ आक्रमण करने के लिए भेजा गया। कैमक की योजना थी कि अचानक आक्रमण कर कब्जा कर लिया जाएगा। परंतु वहां के जमीदार इस पक्ष में नहीं थे कि किले पर अंग्रेजो का कब्जा हो। जयनाथ सिंह व उनके समर्थकों और चेरो ने कैमक की सेना को जयनगर आने से रोकने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। काफी प्रयास के बाद के सन् 1771 ईस्वी में कैमक ने पलामू किले पर अपना कब्ज़ा जमा लिया। इसी साल के मध्य तक सम्पूर्ण पलामू अँग्रेजी कंपनी के अधीन हो गया था।

इसके पश्चात छोटानागपुर ख़ास के नागवंशी महाराज दर्पनाथ शाह ने भी अंतत: कंपनी की अधीनता स्वीकार कर ली। रामगढ़ नागवंशी राजाओं की आपसी दुश्मनी के कारण कैमक को ज्यादा परेशानी नहीं हुई। हालांकि रामगढ़ के राजा मुकुंद सिंह ने यथासंभव अंग्रेजों का विरोध भी किया था। सन् 1772 ईस्वी में कई छोटे बड़े हमले होने के बाद मुकुंद सिंह को वहां से भागना पड़ गया। मानभूम में झरिया, कतरास, झालदा, जयपुर, ईचागढ़, पंचेत, बड़ाभूम में जमीदारों का राज था। इन लोगों ने कंपनी सरकार की मंशा भांपकर जंगलों में छिप गए। थोड़े से प्रतिरोध के बाद वे कर देने को राजी हो गए थे।

ईस्ट इंडिया कंपनी को झारखंड में प्रवेश पाने के लिए 7 दशक लग गए। काफी प्रतिरोध व संघर्ष के बाद भी कंपनी यहां निश्चित होकर शासन नहीं कर पायी, बंगाल में व्यापार को विस्तार देने के प्रयास में कंपनी की नजर संथाल परगना क्षेत्र अंतर्गत राजमहल पर पड़ी। वहां कंपनी का अधिकार सन् 1763 ईस्वी में हुआ था। झारखंड में अंग्रेजों का प्रवेश को सहज नहीं माना जा सकता है। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि यहां तमाम छोटे एवं बड़े राज्यों में सीधे संघर्ष कर जीत हासिल नहीं की गई।

अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति को भी झारखंड में बखूबी अंजाम दिया गया था। बड़े प्रतिरोधों एवं लंबे समय के संघर्ष के उपरांत ही झारखंड में बंगाल के रास्ते अंग्रेजों को प्रवेश संभव हो सका था।

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