सिद्धू कान्हू का जीवन परिचय, निबंध, इतिहास – Sidhu Kahnu biography in hindi
तो आज मैं आपको झारखंड के महान और झारखंड में हुए 1857 के संथाल विद्रोह के जनक और नायक सिद्धू और कान्हू (Sidhu Kahnu) के बारे बताऊँगा। बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि झारखंड में कितने क्रांतिकारी थे। जिन्होंने झारखंड के लिए और झारखंड से अंग्रेजों को भगाने के लिए कितना संघर्ष किया और अपना बलिदान दिया। न जाने कितने परिवारो ने अपने वीर पुत्रों को खोया है। तो आज हम इन्हीं में से एक ही परिवार के चार भाइयों के बारे में जानेंगे। किस तरह इन चार भाइयों सिद्धू कान्हू (Sidhu Kahnu) और उनके भाई चांद और भैरव ने झारखंड में हुए 1857 की लड़ाई में अंग्रेजो के साथ बगैर डर भय का निडर होकर सामना किया।
झारखंड में हुए 1857 का विद्रोह में सिद्धू कान्हू (Sidhu Kahnu) और उनके भाई चांद और भैरव का बहुत बड़ा योगदान रहा। तो आज मैं आपको सिद्धू कान्हू और उनके भाई चांद और भैरव के बारे में बताएंगे। कि उन्होंने झारखंड में हुए 1857 विद्रोह में किस तरह संघर्ष कर अंग्रेजों को भगाने का प्रयास किया और सफल भी हुए। और साथ में जानेंगे उनके परिवार के बारे में कि कौन कौन थे उनके परिवार में और उनका भी योगदान के बारे में जानेंगे। सबसे पहले उनके जन्म और परिवार के बारे जानेंगे।

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सिद्धू का पूरा नाम | सिद्धू मुर्मू |
कान्हू का पूरा नाम | कान्हू मुर्मू |
सिद्धू मुर्मू का जन्म | सन् 1815 ईस्वी में |
कान्हू मुर्मू का जन्म | सन् 1820 ईसवी में |
सिद्धू मुर्मू का जन्म स्थान | साहेबगंज जिला बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह नामक गांव में |
सिद्धू मुर्मू का उम्र | 40 साल |
सिद्धू मुर्मू के पिता का नाम | चुन्नी मांझी |
सिद्धू मुर्मू के माता का नाम | |
सिद्धू मुर्मू के भाई का नाम | कान्हू, चांद और भैरव |
सिद्धू मुर्मू की बहन का नाम | फूलों मुर्मू और झानों मुर्मू |
सिद्धू मुर्मू कि पत्नी का नाम | सुमी मुर्मू |
सिद्धू मुर्मू की मृत्यु, पुण्यतिथि | अगस्त 1855 |
Sidhu Kanhu Family – कान्हू का जन्म वा परिवार
सिद्धू का पूरा नाम सिद्धू मुर्मू था कान्हू का पूरा नाम कान्हू मुर्मू था। सिद्धू मुर्मू का जन्म झारखंड राज्य के संथाल परगना प्रमंडल के साहेबगंज जिले के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह नामक गांव में एक संथाल आदिवासी परिवार में सन् 1815 ईस्वी में हुआ था। और कान्हू मुर्मू का जन्म 1820 ईसवी में हुआ था। सिद्धू कान्हू कुल 6 भाई-बहन थे। जिसमें सिद्धू बड़ा भाई था। बाकी के दो भाई चांद और भैरव थे, चांद का जन्म 1825 ईस्वी में हुआ था। और भैरव का जन्म 1835 ईसवी में हुआ था। उनकी दो बहने भी थी जिनका नाम फूलों मुर्मू और दूसरी बहन का नाम झानों मुर्मू था। सिद्धू कान्हू (Sidhu Kahnu) के पिता का नाम चुन्नी मांझी था। जो आंदोलन के दरमियान शहीद हो गए थे। सिद्धू के पत्नी का नाम सुमी मुर्मू था।
भारत में अंग्रेजों का प्रवेश किस प्रकार हुआ?
लगभग सभी को पता होगा जिन्होंने इतिहास पढ़ा होगा कि भारत में सबसे पहली क्रांति की शुरुआत सन 1857 से शुरू हुई थी। 1857 की क्रांति लगभग पूरे भारत में देखने को मिला था। हर राज्य के लोगो ने इस युद्ध में भाग लिया और अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन किए। जिसमें से झारखंड का भी नाम आता है यहां पर भी सन् 1857 में बहुत से क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध, साल 1857 ईस्वी में अंग्रेजों के अत्याचार के विरुद्ध उनके व्यवहार के विरोध संथाल विद्रोह शुरू किया था।
अंग्रेज झारखंड में बंगाल से सटे रास्ते कोल्हान प्रमंडल के सिंहभूम के रास्ते प्रवेश किया। और धीरे धीरे झारखंड पर अपना अधिकार जमाना शुरु किया।
ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना, वास्कोडिगामा का भारत आगमन
झारखंड में या फिर भारत में अंग्रेज प्रवेश करने से पहले अंग्रेज अपनी कंपनी की स्थापना करती हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी जिसकी स्थापना 31 दिसंबर 1600 को इंग्लैंड में की जाती है। जिसका उद्देश्य समुद्री मार्ग के माध्यम से व्यापार करना था। तो आख़िर अंग्रेज भारत में प्रवेश कैसे किया? भारत आने मुख्य मकसद क्या था? तो शुरु से जानेंगे की अंग्रेज भारत में कब, कैसे और क्यों प्रवेश किया।
भारत में पहली बार 20 मई 1498 ईस्वी को वास्कोडिगामा भारत के केरल के कालीकट बंदरगाह पर आते हैं। यह पहला एरोपियन आदमी था। और जब वास्कोडिगामा भारत आए और यहां का खाना खाया तो उन्हे बड़ा स्वादिष्ट लगा। उन्हें भारत के मसाला बहुत पसंद आता है। तो जब वास्कोडिगामा वापस अपने यूरोप जाता है तो वह भारत से कुछ मसाले सस्ते दामों पर बड़ी मात्रा में ले जाकर यूरोप में बेच देता है। और जब वहां के लोग भी उस मसाले का उपयोग अपने खाने में करते हैं तो उन्हें भी बहुत स्वादिष्ट लगता है। लेकिन उन्हें यह बात पता नहीं थी कि वास्कोडिगामा ये मसाला कहां से लाया हैं। लेकिन एक दिन यूरोप के लोगों को पता चल ही जाता है कि वह मसाला भारत से लाया गया है।
यूरोप के लोगों का भारत आगमन
उसके बाद यूरोप के लोग धीरे-धीरे मसाले की तलाश में भारत की तरफ रुख करते हैं। भारत आने के बाद यूरोपियन लोग मसाले तो लेकर जाते ही हैं। साथ में यूरोपियन लोग भारत में भी अपना प्रभुत्व छोड़कर कर जाते हैं। और भारत में अपना व्यापार शुरू कर देते हैं। वो लोग कपड़े का धंधा शुरु करते हैं शुरु शुरु में, तो उस वक्त भारतीय लोग देश में बने खादी के कपड़े पहनते थे। लेकिन यूरोपियन लोगों के आने से भारत में कई तरह के कपड़े आ गए थे। अलग-अलग तरह के रंग–बिरंगे कपड़े जिससे भारतीय लोग बड़े प्रभावित हुऐ। इस तरह उन्होंने भारत में अपना कपड़े का व्यापार शुरु किया। और उस वक्त यूरोप के पास थोड़ी बहुत टेक्नोलॉजी भी थी तो टेक्नॉलॉजी को भारत में भी लाया।
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना
भारत के लोग भी यूरोपियन लोग से प्रभावित हुए उनके वेशभूषा से प्रभावित हुए उनके पहनावे को देखकर वह भी उनकी तरह कपड़े पहनने लगे और उससे कपड़े खरीदने लगे। यूरोपियन ने अपना मोनोपोली शुरू किया। सन् 1608 ईस्वी में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना होती है। सूरत में सबसे पहला कंपनी का स्थापना होती है। 1690 ईस्वी में व्यवसाय करने के उद्देश्य से कोलकाता में भी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की जाती है और उसके साथ व्यापार किया जाता है।
प्लासी युद्ध : रॉबर्ट क्लाइव और बंगाल के राजा नवाब सिराजुद्दौला के बीच
सन 1707 ईस्वी में मुगल बादशाह औरंगजेब की मौत हो जाती है। जिससे मुगल वंश कमजोर हो जाता है, जिसकी वजह से भारत की राज व्यवस्था कमजोर पड़ जाती है। जिसका फायदा अंग्रेज उठाते हैं। और 23 जून 1757 में प्लासी का युद्ध बिहार में होता है। जिसमें रॉबर्ट क्लाइव और बंगाल के राजा नवाब सिराजुद्दौला के बीच होता है जिसमें अंग्रेज जीत जाते हैं। इस युद्ध के जीतने के बाद अंग्रेजों को लगता है कि वह अब भारत में बड़े ही आसानी शासन भी कर सकता है।
बक्सर युद्ध : हैक्टर मुनरो और बंगाल के नवाब मीर कासिम, अवध के नवाब सिराजुद्दौला, मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय
इस युद्ध के परिणाम स्वरूप 12 अगस्त 1765 ईस्वी को इलाहाबाद में एक संधि होती है जिसमें अंग्रेजों को दीवानी अधिकार प्राप्त होता है जिसके तहत वह बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा में कर वसूली कर सकता था। यह अधिकार उनको इलाहाबाद संधि में प्राप्त हुआ था। बहुत से लोगों को तो पता ही होगा कि उस वक्त बंगाल के अंतर्गत ही बिहार, झारखंड और उड़ीसा आता था। यह तीनों एक ही प्रांत हुआ करता था। इसका मतलब यह था कि अंग्रेज झारखंड से भी कर वसूल करते थे।
उसके बाद एक और युद्ध होता है बक्सर का युद्ध, जो 23 अक्टूबर 1764 इसवी में होता है। यह युद्ध हैक्टर मुनरो और बंगाल के नवाब मीर कासिम, अवध के नवाब सिराजुद्दौला, मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय यह सब एक तरफ होते हैं और उधर हैक्टर मुनरो एक तरफ होते हैं। और यह युद्ध भी अंग्रेज जीत जाते हैं। इसके बाद अंग्रेज और भी उत्साहित हो जाते हैं उन्हें एहसास हो जाता है कि वह भारत में बहुत ही आसानी से कब्जा कर सकता है।
झारखण्ड में अंग्रेजों का प्रवेश
तो उस वक्त झारखंड में भी क्षेत्रीय राजवंश का शासन हुआ करता था। जिसमें राजवंशों के अधीन छोटानागपुर खास का नाग वंश, सिंहभूम का सिंह वंश, मानभूम का मान वंश, रामगढ़ राज्य पलामू का चेरो वंश, पंचेत राज्य इत्यादि उस वक्त झारखंड के प्रमुख राजवंश हुआ करते थे। 1767 से लेकर 1837 तक अंग्रेज़ी कंपनी को झारखंड क्षेत्र पर अपने कब्जे में लेने के लिए करीब 70 साल लग गए। इससे पहले जितने भी क्षेत्रों में अंग्रेजों ने कब्जा किया था, इतना समय नहीं लगा था।जितना कि झारखंड को कब्जा करने में लगा था। सन 1767 ईस्वी में अंग्रेज झारखंड में सिंघभूम के रास्ते प्रवेश करते हैं। और 1837 ईस्वी में कोल्हान क्षेत्र (सिंहभूम) पर (विल्किंसन रुल) नियंत्रण कर लेता है।
झारखंड में 1857 की क्रांति की शुरुआत कैसे हुई?

झारखंड में देखा जाए तो 1857 की क्रांति की शुरुआत बहुत से कारणों के कारण हुआ। जिस पर मैं आपको विस्तार से बताऊंगा आखिर संथाल आंदोलन या संथाल विद्रोह की शुरुआत कैसे हुई इस पर विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे। संथाल परगना को पहले “जंगल तराई” के नाम से जाना जाता था। संथाल परगना क्षेत्र को अंग्रेज दामिन ए कोह कहते थे। संथाल आदिवासी लोग संथाल परगना क्षेत्र में 1790 ईसवी से 1810 ईसवी के बीच बसे।
सिद्धू–कान्हू (Sidhu Kahnu) ने जुलाई 1855 में संथाल परगना में आंदोलन का बिगुल फूंका था, जब इन्होने देखा की ब्रिटिश सरकार जमींदारों और महाजनों का पक्ष ले रहा है। इनसे ये सब देखा नही जा रहा जिसके कारण सिद्धू–कान्हू ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा था।
संथाल विद्रोह के कारण?
- तो अंग्रेज झारखंड में रेलवे का निर्माण कर रहे थे जिसके लिए वो जंगलों की कटाई कर रहे थे। जिसके कारण संथाल आदिवासियों के घर धीरे धीरे उजड़ रहे थे।
- ब्रिटिश सरकार, जमींदार, ठेकेदार और बड़े व्यवसायी
मिलकर आदिवासियों की जमीन को गैर कानूनी तरीके से हड़प रहे थे अपने कब्जे में ले रहे थे। - आदिवासियों को अपने ही जमीन पर खेती करने के लिए जमीदारों को टैक्स देना पड़ता था। और साथ में जो भी चीजे उगाई जाती थी मुफ्त में उसमे हिस्सा देना पड़ता था।
- आदिवासी लोगों पर अंग्रेजी हुकूमत, जमीदार, जागीरदार, सेठ, साहूकार और व्यवसायी के द्वारा हर दिन परेशान और शोषण किया जाता था। आदिवासीयों को वो लोग नौकर बना कर रख दिया था।
- आए दिन आदिवासी महिलाओं का शोषण और उसके साथ बलात्कार करते थे। और केस मुकदमा तक सरकार के पास नहीं जाता था।
- उस दौर में अगर किसी भी तरह का प्रोग्राम जैसे शादी समारोह, जन्म, मृत्यु भोज करना होता था तो करने से पहले अंग्रेज को टैक्स देना पड़ता था।
- आदिवासी जमींदारों के लिए पालकी बनाकर उनको कंधे में लेकर यात्रा करना पड़ता था।
- जंगलों की जबरन कटाई की जा रही थी। जानवरों को बेगैर पैसा दिए ले जाते थे।
- उनके खिलाफ आवाज उठाने वालों को जान से मार देना तो उनके लिए आम बात थी।
- सरकारी अधिकारी, जमीदारों पर मुकदमा दायर करने पर मुकदमा का सारा खर्च आदिवासीयों को ही उठानी पड़ती थी।
संथालों पर अंग्रेजों का अत्याचार
दिन पर दिन अंग्रेज आदिवासियों पर शोषण का दायरा बढ़ाता ही जा रहा था। जिसकी वजह से आदिवासियों में अंग्रेज के विरुद्ध बड़ा क्रोध उत्पन्न हो रहा था। लेकिन वह कुछ नहीं कर पा रहे थे। क्योंकि उनके पास कुछ ऐसा हथियार नहीं था उनका कोई संगठन नहीं था। कोई साथ देने वाला नहीं था ऐसे और भी बहुत से कारण थे। लेकिन कहीं ना कहीं कोई ना कोई इस चीज को अच्छे से समझ रहा था कि अंग्रेज हम लोगों पर अत्याचार कर रहा है। तो सिद्धू ने अपने समुदाय में इस चीज को बताया।
आदिवासियों को भी समझाया कि वह अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े। उनका कोई भी काम ना करें उनका कोई भी किसी भी चीज का पालन ना करें। वह हमारे ऊपर जबरदस्ती का शोषण कर रहे हैं। उनका अधिकार है ही नहीं हमें उन से लड़ना होगा और अंग्रेजों के यहां से भगाना होगा। आवाज भी उठाई लेकिन उस वक्त उन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। आदिवासियों को लगा की हम लोग अंग्रेजों का कुछ नहीं कर सकते जिसकी वजह से उन्होंने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन सिद्धू हार नहीं माना, सिद्धू कान्हू (Sidhu Kahnu) यह चीजें बचपन से ही देखते आ रहे थे कि उनके समुदाय पर अंग्रेज कैसे अत्याचार कर रहे थे। आखिर किसी ना किसी को तो आवाज उठाने ही पड़ेगी आज नहीं तो कल।
उसके बाद सिद्धू अपने भाइयों को समझाया अपने परिवार को समझाया क्या सही क्या गलत है वह बतलाया। और अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने की तैयारी करते हैं। अंग्रेज आदिवासी महिलाओं का बलात्कार करने लगे। ये सब देख सिद्धू से रहा नहीं गया और अंग्रेजो के खिलाफ आवाज उठाई। और इस तरह सिद्धू कान्हू खुद दोनों भाई अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा हो जाते हैं। एक संगठन बनाते हैं उसके बाद फिर लोगों को जागरूक करते हैं। अपने पक्ष में लेते हैं अंग्रेजों के विरुद्ध उन्हें उग्र करते हैं और यह लाजमी था और यह सही भी था।
अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार और शोषण से परेशान थे संथाल परगना के लोग। तथा इसी समय लार्ड कार्नवालिस द्वारा अस्थाई बंदोबस्त क्षेत्र में लागू किए जाने के कारण एक नया जमींदार वर्ग खड़ा हो गया जिससे आदिवासियों में अत्याचार और भी बढ़ गया। मालगुजारी में थोड़ी सी भी अनियमितता होने पर जमीन नीलाम कर दिया जाता था। इन्हीं सब कारणों से परेशन होकर सिद्धू कान्हु ने अंग्रेज एवं साहूकारों के विरुद्ध 1855 – 56 में विद्रोह की शुरुआत कर दी जिसे संथाल विद्रोह या हुल आंदोलन भी कहा जाता है।
संथाल युद्ध से पहले Sidhu Kahnu का महासभा का आयोजन
सिद्धू और उसके भाई भैरव संथाल के लोगो को इकठ्ठा करने का प्लान करते है। अतार्थ शाल के पत्तों की टहनी भेज कर घर-घर संदेश देना शुरू किया कि अब अबुआ राज यानि हमारा शासन स्थापित करने का समय आ गया है। 30 जून सन् 1855 ईस्वी में पूर्णिमा के अर्धरात्रि के समय भोगनाडीह में लगभग 400 गांवों से 20,000 (अनुमानित 50,000 लोग) संथालों की भीड़ इकट्ठा होती है। इसमें क्रांतिकारी सिद्धू ने बड़े जोश के साथ शेर की तरह गरजते हुए कहा कब तक हम लोग अंग्रेजों की गुलामी करते रहेंगे। अंग्रेज हमारे बहु– बेटियों को कठपुतली समझते रहेगें।
जब मन करता है उन उठाकर ले जाते हैं उनका बलात्कार करता है। और जब हम उनके खिलाफ केस मुकदमा करने जाते हैं तो उन पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। गर वहीं कोई आदिवासी उनके घर के बहु–बेटियों का बलात्कार कर दे तो उनका हर्ष क्या होगा पता ही है। तो फिर हमारी बहु–बेटियों का कोई इज्जत नही है क्या? आखिर कब तक हम लोग ये सब देखते रहेंगे। “करो या मरो अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो” संथाल परगना से हमलोगो को दिकू को यानी जागीरदार जमींदार और अंग्रेजों को यहां से भगाना होगा। इस ऐतिहासिक आदिवासी महासभा को ही संथाल विद्रोह या हुल विद्रोह के नाम से जाना जाता है। तो इस युद्ध को नेतृत्व करने वाला भी चाहिए था तो कौन करेगा, यहीं पर संथालों ने सिद्धू को ही राजा, कान्हु को मंत्री, चांद को प्रशासक और भैरव को सेनापति बना दिया।
सिद्धू–कान्हू महासभा के बाद क्या कहते हैं
- अब कोई भी जमींदारों और अंग्रेजों को किसी भी तरह का लगन नहीं देगा।
- कोई भी आदिवासी ब्रिटिश सरकार के आदेशों का पालन नहीं करेगा।
- कोई आदिवासी अब ब्रिटिश और जमींदार के यहाँ काम करने नहीं जाएगा।
- अब अंग्रेज सरकार और जमींदार के शोषण करने पर हम मिलकर उनका बहिष्कार करेंगे और गर नहीं माने तो हम उनको मार देंगे।
- तीर धनुष फरसा कटार जैसे हथियार अपने पास रखो मरानगबुरु को अब हम इन अंग्रेजों कि बाली चढ़ाएंगे।
इसी घोषणा के साथ संतझल विद्रोह का आगाज हो जाता है।
जैसे ही ये महासभा खतम होती है उसके कुछ दिन बाद ही रेल निर्माण करने वाले अंग्रेज ठेकेदार 3 आदिवासी महिलाओ को बलात्कार करने के मकसद से बंदी बना लेते हैं। अंग्रेज ठेकेदारों का ये गंदी सोच ने संथाल विद्रोह में घी डालने का काम किया। इससे संथाल के क्रांतिकारी आग बबूला हो जाते है बहुत ज्यादा गुस्सा फुट पड़ता है अंग्रेजों के खिलाफ अब तो बवाल होना तय था। कान्हू तो गुस्सैल मिजाज के थे ही अब उनके पास कारण और मौका दोनों था अपने साथियों के साथ मिलकर कान्हू उन कई अंग्रेज ठेकेदारों को जान से मार देते हैं। अब जहाँ भी जरा स मौका मिलता संथाल विद्रोह के लोग अंग्रेज को मारने से पीछे नहीं हटते थे, सीधे मार देते थे।
अंग्रेज संथालों से क्यों डर गए
अंग्रेज अफसर इतने डर गए थे इतना खौफ हो गया था संथाल विद्रोहियों से कि उनलोगों ने अपनी सुरक्षा बढ़ा दी। सिद्धू ने महासभा के दौरान कही थी कि अब अंग्रेजों और ठेकेदारों के यहाँ कोई काम करने नहीं जाएगा। और एक दिन ऐसा आता है की कोई आदिवासी अंग्रेज ठेकेदारों के यहाँ काम करने नहीं जाता है वो दिन था 7 जुलाई 1855. अंग्रेज इससे बहुत तिलबिला उठते हैं और कहते हैं कि काम करने के लिए एक आदिवासी तक नहीं आया। उसके बाद अंग्रेज काम करवाने के लिए आदिवासी के घर तक पहुँच जाते हैं। और जोर जबरदस्ती आदिवासी को काम पर ले जाने की कोशिश करता है लेकिन बीच मे सिद्धू आ जाते हैं।
सिद्धू बस एक इशारा करते हैं उसके बाद दिगही के दरोगा और अंग्रेज सिपाही को संथाल विद्रोही वहीं पर मौत की नींद सुला देते हैं। और दूसरी तरफ कान्हू भी कुरुघूरिया थाने के दरोगा को मार देते हैं। सिद्धू कान्हू (Sidhu Kahnu) के नेतृत्व में सैकड़ों अंग्रेज अफसर को मार दिया गया। अंग्रेज अफसर और जमींदार इतने डर गए कि अब उसका घर से निकलना मुश्किल हो गया थ और अपने घर के बाहर सैकड़ों पुलिस को सुरक्षा के लिए तैनात कर दिए।
संथालों ने जब अंग्रेजों पर धावा बोला
करीब 20,000 संथालों ने अंबर परगना जहां पर अंग्रेज और साहूकार लोग ही रहते थे। वहां के राज महल पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया तथा आसपास के जितने भी गांव थे जहां पर सिर्फ अंग्रेज और साहूकार रहते थे वहां पर संथालो ने आग लगा दी। संथाल अपने तीर कमान, भाला आदि शस्त्रों से अंग्रेजों पर टूट पड़े, अंग्रेजों के पास गोला बारूद से परिपूर्ण साथ में अनेकों अस्त्र-शस्त्र होने के बावजूद वे संथालो के आगे टिक नहीं पा रहे थे। संथालो के भय से ही अंग्रेजों ने पाकुड़ में मार्टिलों टावर को बनवाया था। उस वक्त भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी था।
अंग्रेजों ने सिद्धू कान्हू (Sidhu Kahnu) को पकड़ने के लिए बहुत ही सख्त कदम उठाया। जब अंग्रेजो का लगा कि दोनो भाई भोगनाडीह के अपने घर में तो उस क्रम में भोगनाडीह में छापेमारी कर उस घर में आग लगा दी। उस घर में सिद्धू कान्हु तो नही थे लेकिन अफसोस उस घर में उनके पिता चुन्नी मांझी की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों के साथ बरहात जगह पर लड़ाई हुई जिसमें चांद मुर्मू और भैरव मुर्मू शहीद हो गए। अंग्रेजी सरकार के पास बंदूक, बारूद जैसे आधुनिक हथियारों होने के बावजूद भी सिद्धू कान्हु (Sidhu Kahnu) को पकड़ नही पा रहे थे।
संथाल विद्रोहियों के डर से अंग्रेज छिप गए
संथाल विद्रोही के भय से ही अंग्रेजों ने पाकुड़ में मार्टिलों टावर को बनवाया और उसमे जाकर छिप जाते थे और साथ में जमींदार और ठेकदारों को भी छिपाते थे। मार्टिलों टावर के गुंबद आकार का था ये गुंबद आज भी है और इनको अच्छे से मरम्मत भी किया जा चुका है। तो इसमे छोटे छोटे खिड़कियां है जिसको बंद भी किया जा सकता है। जब संथाल विद्रोही इस मार्टिलों टावर गुंबद के पास आते थे तो अंग्रेज छोटे छोटे खिड़कियों से गोलियां चलाते थे और फिर खिड़कियां बंद कर लेते थे।
हूल यात्रा शुरू हुआ जो कलकता की ओर जा रही थी और साथ में गांवों को लूटा जा रहा था, जलाया जा रहा थाऔर लोग मारे जा रहे थे। करीब 20,000 संथाल युवाओ ने अंबर परगना के राजभवन पर हमला कर दिया और 2 जुलाई 1855 को उसे अपने कब्जे में ले लिया। फुदनीपुर, कदमसर और प्यालापूर के अंग्रेजों को मार गिराया। निलहा साहबों कि विशाल कोठियों पर कब्जा करते जा रहे थे। 7 जुलाई 1855 को दिगही थाना के दरोगा के पिट्टू महेशलाल दत्त कि हत्या कर दी गई। तब तक 19 लोगों को मौत को मौत कि नींद सुला दिया था, सुरक्षा के लिए बनाए गए मार्टिलों टावर से अंधाधुंध गोलीय चलाई जा रही थी जिससे संथाल विद्रोहियों को बहुत नुकसान हुआ। फिर भी बंदूक का मुकाबला संथाल के लोगों ने तीर-धनुष, भाला आदि से किया।
संथालों ने वीरभूमि क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और वहाँ से अंग्रेजों को मार भगाया, विरपाइती में अंग्रेज सैनिकों की हार हुई। रघुनाथपुर और संग्रामपुर कि लड़ाई में संथाल कि सबसे बड़ी जीत हुई। इस इस लड़ाई में एक युरोपियन सेनानायक, कुछ स्वदेशी अफसर और करीब 25 सिपाहियों की मौत हुई थी। इसके बाद से अंग्रेज अफसर बौखला गए थे, भागलपुर कमिश्नरी के सभी जिलों में मार्शल लॉ लागू कर दिया। विद्रोहियों की गिरफ़्तारी के लिए अंग्रेजों ने इनाम रख दिया, उनसे मुकाबला करने के लिए जबरदस्त तैयारी की।
बडहैत की लड़ाई
इस लड़ाई में चाँद और भैरव कमजोर पड़ रहे थे और अंग्रेज की गोलियों से मारे गए। सिद्धू कान्हू (Sidhu Kahnu) के कुछ साथी इनाम के लालच मे आकर अंग्रेजों से मिल गए। और उनकी मदद से कान्हू को उपरबंदा गाँव के पास से गिरफ्तार कर लिया गया। बड़हैत मे 19 अगस्त को 1855 को सिद्धू को भी गिरफ़ में ले लिया गया। मेहर शकवार्ग ने उसे बंदी बनाकर भागलपुर के जेल में ले जाकर बंद कर दिया। दोनों भाइयों को खुलेआम फांसी पर चढ़ा दिया, सिद्धू को बड़हैत में पंचकठिया नामक जगह पर फांसी दे दी गई। उस स्थल को शहीद स्थल भी कहा जाता है। और सिद्धू के भाई कान्हू को उसी के गाँव भोगनाडीह में फांसी दे दी। दोनों भाइयों के मौत के बाद मानो अब संथाल विद्रोह खतम हो चुका था।
30 नवंबर 1856 को कानूनन रूप से संथाल परगना को जिला घोषित किया और इसके प्रथम जिलाधीश के एशली इडेन को बनाया गया। पूरे देश से अलग कानून से संथाल परगना का शासन शुरू हुआ। संथाल हूल का तो अंत ही चुका था, लेकिन 2 साल बाद ही 1857 में होने वाले सिपाही विद्रोह, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पीठिका तैयार की गई। आज भी इन चारों भाइयों पर पूरे संथाल परगना और झारखंड को गर्व है। और संथाली गीतों में आज भी सिद्धू कान्हू को याद किया जाता है, सिद्धू कान्हू और उनके भाई के शहीद हो जाने के उपरांत पूरे झारखंड में शहीदों कि जयंती संथाल हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है।
संपूर्ण संथाल विद्रोह काल के दौरान सिद्धू की पत्नी सुमी की भूमिका बहुत ही सराहनीय थी। सिद्धू कान्हु (Sidhu Kahnu) द्वारा किया गया विद्रोह संथाल विद्रोह के नाम से जाना जाता है। आज भी 1855 – 56 के शहीदों की जयंती के रूप में 30 जून को संथाल हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है। 30 नवंबर 1856 को संथाल परगना जिला की स्थापना की गई। और इस जिला का प्रथम जिला अध्यक्ष एशली इडेन को बनाया गया था।
सिद्धू कान्हू कुल चार भाई थे जिनका नाम सिद्धू, कान्हू, चांद एवं भैरव।
सन् 1815 ईस्वी में
9 अगस्त को 1855
झारखंड के महान संथाल विद्रोह के स्वतंत्रता सेनानी
सिद्धू को अंग्रेजों ने फांसी दे दी और कान्हू को एक मुठभेड़ में अंग्रेजों ने मार दिया
1855-1856 ईस्वी में
झारखंड मे हुए 1857 के संथाल विद्रोह के
चुन्नी मांझी
संथाल परगना प्रमंडल के साहेबगंज जिले के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह नामक गांव में
1855
चाँद भैरव सिद्धू कान्हू के छोटे भाई थे
संथाल विद्रोह के जनक सिद्धू और कान्हू थे।
सिद्धू और कान्हू
1855-1856 ईस्वी में शुरू हुआ और उसके नेता सिद्धू–कान्हू थे
झारखंड में
पाकुड़ में