औपनिवेशिक राजनीति का झारखंड (Jharkhand) के वन संपदा पर किस तरह का प्रभाव पड़ा ? वनों पर पूर्णरूपेणआश्रित आदिम जनजातियों को किन दुश्वारियों का सामना करना पड़ा?
देखा जाए तो झारखंड (Jharkhand) पठारी क्षेत्र है, झारखंड में छोटे-मोटे और कुछ बड़े पहाड़ और घने जंगल हर जिले में मिल जाएंगे। झारखंड खनिज संपदा से भी भरा है, झारखंड में भारी मात्रा में खनिज संपदा पाई जाती है जिनमें से जो सबसे पहला भारी मात्रा में पाई जाती है वह कोयला। लेकिन इसमें हम बात करेंगे झारखंड के वनसंपदा की एक समय ऐसा था जब झारखंड वासियों के लिए वन/जंगल आजीविका की एक बड़ी साधन थी, जिस पर झारखंड के बहुत से लोगों जीवन आश्रित था। वन और वन उत्पादों के इर्द-गिर्द उनकी अर्थव्यवस्था चलती थी, झारखंड वासियों के ग्रामीण जंगलों के क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए उनके जीवनयापन का यह एक महत्वपूर्ण स्रोत था।
जंगल और जंगली पशुओं वनस्पतियों के जीवन के प्रमुख आधार थे। समय के साथ जो बदलाव आया उसके हिसाब से बढ़ती आबादी की महत्वाकांक्षा यानी लोगो की जरूरत को पूरा करने के लिए और लोग अपने आमदनी के लिए घर चलाने के लिए लगभग सब वन पर ही आश्रित हो गए और अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए सब वन पर कुदृष्टि डाली। सभी वन की तरफ आकर्षित होने लगे और ठेकेदार और तत्कालीन जो सरकार थी वह भी पीछे नहीं रहे वह भी इस पर आश्रित हो गए। जैसे-जैसे वनों का क्षरण होता गया वैसे-वैसे वनवासियों और आदिम जनजातियों की आर्थिक स्थिति विकट होती चली गई।
आजादी से पूर्व छोटानागपुर संथाल परगना में संपूर्ण बिहार काशी प्रतिशत जंगल विद्यमान थे। अच्छे किस्म की लकड़ियों तथा शीशम, गम्हार, कटहल सॉन्ग के साथ-साथ महुआ बैर जामुन के पेड़ बहुत मात्रा में उपलब्ध थे। जंगलों में मौजूद फल फूल, कंदमूल, गोंद, शहद, तसर, पशुओं के चमड़े, सिंग, हड्डियां, घास, तथा जड़ी बूटी की अधिकता वनवासियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त थे। सामाजिक तथा प्रशासनिक ढांचे में आए बदलाव ने वनों के अस्तित्व पर ही कुठाराघात करना शुरू कर दिया। वनों की कटाई से जनजातियों में असुरक्षा की भावना घर कर गई
जाहिर है कि वनों पर व्यवस्था एक निर्धारित व्यवस्था नष्ट भ्रष्ट होने लगी थी। वनवासियों के विद्रोह का असर सीमित मात्रा में देखा जाने लगा जबकि वनों पर सरकारी आधिपत्य स्थापित की लालसा निरंतर बढ़ती चली गई। इसके बावजूद जनजातियों के पारंपरिक अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए सन् 1873 ईस्वी में भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया। बढ़ते सरकारी हस्तक्षेप और अधिनियम में हुई कई संशोधनों में जनजातियों का अधिकार को धीरे-धीरे सीमित कर दिया। झुमी खेती, जंगलों में अत्यधिक गतिविधि पर रोक लगने लगे, जंगलों के उजाड़ से होने वाली कमाई में आदिवासियों को भी और प्रेरित किया। फल स्वरुप ठेकेदार सरकार और स्थानीय समुदाय के सम्मिलित प्रयास से जंगल का क्षरण निरंतर होता चला गया।
इसके साथ ही झुमरू पर आश्रित वनवासियों की भर्ती उत्तर श्री तरह प्रभावित होने लगी इससे उनके जीवन शैली में काफी बदलाव देखने को मिला और जीवन यापन के लिए वे दूसरी गतिविधियों में संलग्न होते चले गए। हालांकि अंग्रेजों के शासन काल में जनजातियों के लिए वनों की उपयोगिता के मद्देनजर ठोस उपाय किए गए थे। वनवासियों के जंगल पर अधिकार का प्रयास किया गया था परंतु जंगलों को उजाड़ होने से नहीं बचाया जा सका। इसके साथ ही आदिवासियों की परंपरा परंपरा सामूहिक आखेट सेंद्रा तथा जनी शिकार जंगलों के अभाव से लुप्त होते चले गए।
जंगलों के प्रति असीम प्रेम रखने वाली जनजातियां समय के साथ अपने को ढालने लगी। अब वनों के संरक्षण का संपूर्ण दायित्व सरकार पर आ गई, वर्तमान में जंगल के लगातार क्षरण से जलवायु पर इसका दुष्प्रभाव देखा जा रहा है। इसके मद्देनजर सरकार भी पर्यावरण को दुरुस्त करने के लिए जंगल निर्माण पर जोर देने लगी है।
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